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________________ गद्यशैली : निबन्ध एवं आलोचना [ १८३ में शास्त्रविदों का कथन है कि कविता के लिए यह प्रतिभा ही उद्गम-स्रोत है । इससे उच्च कोटि की कविताएँ स्वतः निःसृत होती हैं। इसके अभाव में कविता प्रयासजन्य एवं कृत्रिम वाग्जाल-मात्र हो जाती है। इसलिए, कई आचार्यों ने प्रतिभा को कवि के लिए उपयोगी साधनों में सर्वोपरि स्थान दिया है। कुछ अन्य रीतिकारों के कथनानुसार, प्रतिभा ही पर्याप्त नहीं, उसके साथ अभ्यास और रीतिशास्त्र का अल्पाधिक ज्ञान भी अत्यावश्यक है। द्विवेदीजी को कवित्व-शक्ति की उपादेयता एवं अनिवार्यता में कयमपि सन्देह नहीं, परन्तु वे यह भी जानते हैं कि सभी कवियों मे यह शक्ति समान रूप से नही पाई जाती। किसी-किसी मे यह शक्ति बीजरूप में रहती है और इसी कारण उसे अंकुरित करना पड़ता है। द्विवेदीजी ने यह स्वीकार किया है कि जिसमें कवित्व-शक्ति का सर्वथा अभाव होता है, वह अच्छा कवि नही हो सकता। उन्होने 'कवित्व-शक्ति' के स्फुरण के लिए दो उपायों की ओर इंगित किया है। ये उपाय हैं दिव्य और पौरुषेय । दिव्य उपाय मे सरस्वती देवी की कृपापात्रता के लिए मन्त्रजप करना, उसकी मूत्ति का ध्यान करना और उसके यन्त्र का पूजन करना आदि सम्मिलित है। इसमें सन्देह नही कि द्विवेदीजी की यह विचारधारा-उनका यह मतवाद कि कतिपय दिव्य उणयों की सहायता से 'कवित्व-शक्ति' जाग्रत की जा सकती है, तर्कसंगत एवं वैज्ञानिक नही है। सरस्वती के पूजन और मन्त्रजप से यदि कवित्व-शक्ति का उन्मेष हो पाता, तो विश्व में महान् कवियों की बाढ़ आ जाती। प्रत्येक विद्यार्थी अपनी उत्तर-पुस्तिकाओं में कविताएँ प्रस्तुत करता और सब-के-सब कवि हो गये होते । किन्तु, हम जानते हैं कि 'कवित्व-शक्ति' जन्मजात होती है और पौरुषेय उपायों से ही उसमें यत्किचित् परिपक्वता आ सकती है। तथाकथित दिव्य साधन अन्धविश्वास से उद्गत जान पड़ते हैं। किन्तु, द्विवेदीजी जिसे दिव्य उपाय कहते हैं, वह सर्वथा निरर्थक नहीं है। स्मरण रखना होगा कि वे 'कवित्व-शक्ति' के उदय के उपाय न बतला कर उसको जाग्रत् करने के उपायों की चर्चा करते है। वे उस व्यक्ति के लिए दिव्य उपायों का उल्लेख करते हैं, जिसमें 'कवित्व-शक्ति' पहले से मौजूद है। जिसमे इस शक्ति का नितान्त अभाव है, उसके लिए न तो दिव्य उपाय कारगर हो सकते है और न पौरुषेय ही। द्विवेदीजी पौरुषेय उपायों में काव्यशास्त्र के अध्ययन को उतना ही महत्त्व देते हैं, जितना किसी अच्छे कदि को गुरु बनाने को । पाश्चात्त्य काव्यशास्त्र में भी अनुकृति के सिद्धान्त की भिन्न-भिन्न विवृतियाँ होती रही हैं, जिनमें यह भी मान्यता लोकप्रिय नहीं है कि नवोदित कवियों को अनुकृति से अपनी रचनाओं का आरम्भ करना चाहिए और शनैः-शनैः मौलिकता की ओर अग्रसर होना चाहिए। महाकवि को अपना गरु मानकर नवोदित कवि अपनी शैली का विकास करे और उसे सिद्ध कवि की शैली के
SR No.010031
Book TitleAcharya Mahavir Prasad Dwivedi Vyaktitva Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShaivya Jha
PublisherAnupam Prakashan
Publication Year1977
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size26 MB
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