SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गद्यशैली : निबन्ध एवं आलोचना [ १८१ नहीं रह जाती, तो वह द्विवेदीजी को भले ही अरुचिकर लगे और गर्हणीय बन जाय, किन्तु अनेकानेक उदार और सुधी आलोचक जिनकी सूझ और पैठ सर्वथा प्रशंसनीय मानी जाती है, उसका अभिनन्दन करेंगे । दूसरी बात ध्यातव्य है कि सहजता और दुर्बोधता दोनों ही सापेक्ष शब्द है । जिसे पाठको का एक वर्ग सुबोध कह सकता है, वही दूसरे वर्ग के लिए दुर्बोध प्रतीत होता है । छायावाद के आविर्भावकाल मे अनेक तरुण पाठकों के लिए नई कविता नये युग की नव्यतर संवेदनाओं की अभिव्यक्ति थी और इसी कारण उनके लिए अभिनन्दनीय भी। जिन नये भावबोधों की अभिव्यक्ति के लिए नई शैली और अभिव्यक्ति की नई भंगिमा का विनियोग हुआ था, उन भावनाओ से प्रभावित लोग छायावाद के समर्थक ये। किन्तु, जो इनसे अछूते रहे, जिनपर उनका प्रभाव न पड़ा, जो नई पीढ़ी के प्रति स्वभावतः अनुदार थे, उनके लिए वे भावबोध दुर्बोध और जटिल थे। आज की नई पीढ़ी की अपनी कविता है और अपनी विशिष्ट शैली भी । आज के नये कलाकारों का भावबोध नया है और इसी कारण उनकी कला भी नव्यता से मण्डित है। पुराने कलाकार पुरानी पीढ़ी और प्राचीन भावबोधों के अनद्यतन कवि न तो इस नई सृष्टि की मूलभूत अनुभूतियों का और न तो उनकी सम्प्रेषण-शैली का ही स्वागत कर सकते है । किन्तु, उपर्युक्त आलोचना का यह अर्थ नही कि द्विवेदीजी की मान्यताएँ नितान्त दोषमुक्त हैं और न यही कि द्विवेदीजी न तो अन्तर्दृष्टि-सम्पन्न आलोचक थे और न उच्च कोटि के प्रबुद्ध एवं तर्ककुशल साहित्यकार ही। द्विवेदीजी की सीमाएँ और उनके दोष मुख्यतः कालगत हैं और उनका सम्बन्ध स्थितियों से भी है, जिनमें द्विवेदीजी का अवतरण हुआ था। स्वयं द्विवेदीजी ने अपने युग को संक्रान्ति का युग कहा है। इस सन्दर्भ में उनका यह कथन कि 'हिन्दी-कवि का कर्तव्य है कि वह लोगों की रुचि का विचार रखकर अपनी कविता ऐसी सहज और मनोहर रचे कि साधारण पढ़े-लिखे लोगों में भी पुरानी कविता के साथ-साथ नई कविता पढ़ने का अनुराग उत्पन्न हो जाय', विचारणीय है । उनके इसी कथन के आधार पर हम यह भी कह सकते है कि इस संक्रान्ति-काल से हिन्दी का आलोचक भी लोगों की रुचि का विचार रखे और अपनी आलोचनाओं को यथासम्भव सहज और मनोहर बनाये । द्विवेदीजी के कतिपय आलोचनात्मक निबन्ध तयुगीन साहित्यिक परिस्थितियों पर प्रकाश डालते हुए ऐतिहासिक पीठिका का निर्माण तो करते ही हैं, साथ ही उन कवियों और साहित्यिकारों की मनःस्थिति को प्रकाशित करते हैं, जिनकी कालजयी रचनाएँ हिन्दी-साहित्य का अविच्छिन्न अंग बन चुकी है। 'कवि बनने के सापेक्ष साधन' शीर्षक निबन्ध का आरम्भ द्विवेदीकालीन साहित्यिक वातावरण के सम्यक् विवरण सेहोता है और कहा जाता है कि 'आजकल हिन्दी के कवियों ने बड़ा जोर पकड़ा है।
SR No.010031
Book TitleAcharya Mahavir Prasad Dwivedi Vyaktitva Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShaivya Jha
PublisherAnupam Prakashan
Publication Year1977
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy