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________________ गद्यशैली : निबन्ध एवं आलोचना [ १७५ संकेत कर उनसे बचने का आदेश दिया और दूसरी ओर अपनी बहु-विस्तृत सर्जनात्मक कोटि की समीक्षाओं के द्वारा नवयुग के अनुकूल आदर्श उपयोगितावादी साहित्य की रचना के मानदण्ड उपस्थित किये । इस प्रकार, आचार्य द्विवेदीजी का आलोचना-साहित्य हिन्दी-आलोचना के इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। इसमें सम्पूर्ण द्विवेदी-युग की साहित्यशास्त्रीय मान्यताएं छिपी हुई है तथा उसी में हिन्दी-साहित्य के मूल्यो-आदर्शो के युगान्तरकारी परिवर्तन का इतिहास भी समाविष्ट है। उपदेशमूलक आलोचना : 'रसज्ञरंजन' में संगृहीत आलोचनात्मक निबन्धों का सम्बन्ध साहित्य की विभिन्न विधाओं से न होकर केवल कविता से है । द्विवेदीजी 'कवि-कर्त्तव्य', 'कवि बनने के सापेक्ष साधन' आदि का विवेचन तो करते है, परन्तु न तो वे अन्यान्य विधाओं के प्रति सजग दीखते हैं और न प्रमाता के प्रति उतना जागरूक ही, जितना वे कवि की ओर है । 'कवि-कर्त्तव्य' की शैली नितान्त नीतिमूलक एवं उपदेशात्मक है। आलोचक का उद्देश्य कवि को यह बतलाना है कि उसकी कविता कैसी होनी चाहिए। उसका यह लक्ष्य कि पाठको को भी 'कवि-कर्त्तव्य' का ज्ञान हो, गौण-सा हो गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि 'कवि-कर्त्तव्य' की रचना सामान्य पाठकों के लिए न होकर उन कवियो के लिए हुई है, जिन्हे अपने कर्तव्य का ज्ञान न था अथवा जो अपने कर्तव्य को विस्मृत कर चुके थे। 'कवि-कर्त्तव्य' का आलोचक कवि का पथप्रदर्शन बन जाता है और अभिजात आलोचकों की तरह कवि के उन कर्त्तव्य पर बल देता है, जिन्हें सम्भवतः वे विस्मृत कर चुके थे । अभिजात आलोचना कवि को विस्मृत तथ्यों का ज्ञान कराती है, वस्तुपरक होती है। जहाँ स्वच्छन्दतावादी आलोचना आत्मनिष्ठ होती है और आलोच्य रचना के प्रभावो के प्रति अत्यन्त संवेदनशील और उन्मुक्त भी, वही दूसरी ओर अभिजात आलोचना आलोच्य रचना के प्रति वस्तुपरक दृष्टिकोण अपनाती हुई प्रभावो से अछूती रहने का प्रयास करती है । यही कारण है कि अभिजात आलोचना मे पुरुष-तत्त्व की प्रधानता होती है और स्वच्छन्दतामूलक आलोचना में स्त्री-तत्त्व की। ___ इस सन्दर्भ में हम, उदाहरणार्थ, उन वाक्यों पर विचार कर सकते हैं, जिनका अन्त होना चाहिए' से होता है : १. "अश्लीलता और ग्राम्यता-गभित अर्थो से कविता को कभी न दूषित करना ___ चाहिए और न देश,काल तथा लोक आदि के विरुद्ध कोई बात कहनी चाहिए।" २. "कविता का विषय मनोरंजन और उपदेशात्मक होना चाहिए।" ३. “गद्य और पद्य की भाषा पृथक्-पृथक् न होनी चाहिए।"
SR No.010031
Book TitleAcharya Mahavir Prasad Dwivedi Vyaktitva Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShaivya Jha
PublisherAnupam Prakashan
Publication Year1977
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size26 MB
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