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________________ १७४ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व Sh i nesenterest a menuintradiciarladkiokmarwarimpMR.antennisanei HTTEACHERECTRESS . भाषा की ही भाँति द्विवेदीजी की आलोचना-शैली भी उनकी परिचयात्मक तथा सैद्धान्तिक समीक्षाओं में पर्याप्त निखरी हुई तथा विषयानुकूल बनकर सामने आई है। द्विवेदीजी की आलोचना-शैली के स्पष्टतः दो प्रमुख रूप दीखते हैं : १. ताकिक एवं गम्भीर शैली, तथा २. व्यंग्यपूर्ण शैली। अपनी सैद्धान्तिक स्थापनाओं में द्विवेदीजी ने प्रधानतः तार्किक एवं गाम्भीर्यपूर्ण शैली का ही प्रयोग किया है। अपने विरोधियों का मुहतोड़ जवाब देने के लिए उन्होंने प्रायः तार्किक शैली का अनुसरण किया है और अपनी अथवा औरों की सैद्धान्तिक मान्यताओं को प्रस्तुत करने के लिए गम्भीर शैली का उपयोग किया है । इसी गम्भीर एवं तर्कपूर्ण शैली के दर्शन उनकी कतिपय परिचयात्मक समीक्षाओं में भी होते हैं। अपनी गाम्भीर्यपूर्ण शैली के लिए उन्होंने भाषा भी गम्भीर रखी है। परिचयात्मक आलोचना के क्षेत्र में ही द्विवेदीजी की व्यंग्यपूर्ण शैली का सर्वाधिक प्रसार दीखता है। आलोच्य रचना में कहीं दोष या वैपरीत्य देखते ही द्विवेदीजी ने उसके रचयिता पर व्यंग्य-बाणों की वर्षा की है। उनकी इस व्यंग्यपूर्ण शैली में हास्य का ही किंचित् पुट मिला हुआ है। उदाहरणार्थ : । “व्याख्याता महोदय ने एकमात्र दयानन्द सरस्वती को वेदों के सच्चे अर्थ का ज्ञाता बताया । औरों की आपने बुरी तरह खबर ली है। पश्चिमी देशों के ही वेदज्ञों की अलमज्ञता और भ्रम का निर्देशन आपने नहीं किया, सायण तक को आपने वेदार्थ-ज्ञान में बिलकुल ही कोरा बताया है। शायद बिना ऐसी लताड़ के स्वामीजी महाराज की और आपकी वेदज्ञता साबित हो न पाती । खैर, अभागी भारत के सौभाग्य ! से एक सच्चे वेदज्ञ का अवतार हो गया । आर्य समाज को बधाई।११ ___'ऋग्वेद पर व्याख्यान' शीर्षक पुस्तक की समीक्षा करते समय द्विवेदीजी ने अपनी चुभती हुई हास्य-व्यंग्यपूर्ण शैली का सुन्दर प्रस्तुतीकरण इस अवतरण में किया है। अपनी इस व्यंग्यपूर्ण तथा तार्किक गम्भीर शैली द्वारा उन्होंने अपने आलोचनात्मक साहित्य का बहुविध गठन किया है । . स्पष्ट है कि आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी-भाषा एवं साहित्य के नियमन तथा दिशानिर्देश के उद्देश्य से अपने आलोचनात्मक साहित्य का निर्माण किया। अपनी परिचयात्मक तथा सैद्धान्तिक दोनों प्रकार की आलोचनाओं द्वारा उन्होंने साहित्यिक प्रगति को एक नया मोड़ दिया। इस दिशा में उनकी आलोचना के दो प्रयोजन स्पष्ट होते हैं : संहारात्मक तथा सर्जनात्मक । द्विवेदीजी का सम्पूर्ण समीक्षासाहित्य इन्ही दोनों लक्ष्य बिन्दुओं पर आधृत है। उन्होंने एक ओर अपनी विभिन्न संहायत्मक आलोचनाओं के माध्यम से प्राचीन एवं नवीन लेखन के दोषों की ओर १. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : विचार-विमर्श, पृ० २४१ । र
SR No.010031
Book TitleAcharya Mahavir Prasad Dwivedi Vyaktitva Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShaivya Jha
PublisherAnupam Prakashan
Publication Year1977
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size26 MB
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