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________________ गद्यशैली: निबन्ध एवं आलोचना [ १६१ उच्च आदर्श एवं महान् उद्देश्य को लेकर इन समालोचनाओं को प्रस्तुत किया था,, उसकी पत्ति के लिए उन्होंने अपनी कटु आलोचनाओं की भी परवाह नहीं की। वे हिन्दी-साहित्य की अभिवृद्धि करने एवं उसकी आलोचना को नया स्वरूप प्रदान करने. की दिशा में सतत प्रयत्नशील रहे । डॉ. शिवकरण सिंह ने लिखा है : ___ "वे बँधी-बँधाई अथवा पिटी-पिटाई विचारधारा के व्यक्ति न थे। उनके समक्ष तो: हिन्दी-साहित्य के रिक्त भाण्डार को मूल्यवान् साहित्यिक चर्चा से भरने और आदर्शपूर्ण ग्रन्थों के विवेचन के आधार पर एक निश्चित आदर्श स्थापित करने का ज्वलन्त प्रश्न मुह बाये खड़ा था । वे एक मनीषी एवं युगद्रष्टा व्यक्ति की तरह अपने इस प्रयत्न में संलग्न हुए और प्राचीन और अर्वाचीन सभी विषयों के विवेचन के आधार पर हिन्दी-- साहित्य की श्रीवृद्धि करने का भगीरथ प्रयास करने लगे।" __ उनकी ये आलोचनाएँ हिन्दी-जगत् के लिए उपकारी सिद्ध हुई, इसमें सन्देह नहीं। आलोचना के क्रम में उन्होने एक ओर कालिदास जैसे अतीत काल के साहित्यिकों की उपलब्धियों का पुनर्मूल्यांकन किया और दूसरी ओर अपने युग के नये-से-नये कवि को को भी समीक्षा की कमौटी पर रखा । आचार्य द्विवेदीजी की इस परिचयात्मक आलोचना का प्रारम्भिक रूप अधिकांशतः दोष-दर्शन की प्रवृत्ति से ही ग्रस्त या। इसी कारण 'हिन्दी-कालिदास की समालोचना', 'कालिदास की निरंकुशता' इत्यादि कई प्रारम्भिक कृतियों में उनका सम्पूर्ण ध्यान रचना के दोषों का सन्धान करने में ही लगा रहा है। द्विवेदीजी दोष-दर्शन की इस नीति को उन दिनों बुरा नही मानते थे, जैसा कि उन्होने स्वयं एक स्थान पर लिखा है : "समालोचना करने की प्रणाली इस देश में पुराने समय से है, किन्तु वह प्रणाली अब पुराने ढग की है। समालोचना करने की कई प्रणाली अँगरेजी-शिक्षा की बदौलत हमने सीखी है। अँगरेजी-साहित्य में सच्चे समालोचकों को बड़े आदर की दृष्टि से देखा जाता है। यह सब समालोचनाएँ प्रशंसात्मक ही नहीं। इनमें शेक्सपियर जैसे कवियों के दोष-दर्शन भी दिखाये जाते हैं और दोष भी एक तरह के नहीं, सब तरह के-शेक्सपियर की भाषा के दोष, शेक्सपियर की कविता के दोष और शेक्सपियर के पन्नों के दोष; पर इन दोषों को कोई बुरा नहीं मानता।"२ प्रस्तुत अवतरण से एक ओर द्विवेदीजी की दोष-दिग्दर्शन-सम्बन्धी भावना प्रकट होती है और दूसरी ओर यह भी ज्ञात होता है कि प्रारम्भ से ही वे पाश्चात्त्य आलोचना से प्रभावित थे। भारतीय संस्कृति एवं संस्कृत-साहित्यशास्त्र में पूर्ण आस्था रखते हुए १. डॉ. शिवकरण सिंह : आलोचना के बदलते मानदण्ड और हिन्दी-साहित्य, पृ० ३९१ । २. डॉ० रामदरश मिश्र : 'हिन्दी-आलोचना का इतिहास', पृ० ५० पर उद्धृत।
SR No.010031
Book TitleAcharya Mahavir Prasad Dwivedi Vyaktitva Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShaivya Jha
PublisherAnupam Prakashan
Publication Year1977
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size26 MB
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