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________________ सम्पादन-कला एवं भाषा-सुधार [ ११ लेखकों की लेखनी दौड़ रही थी, वे भी स्वस्थ एवं मंगलकारी नहीं थे। पर्यटन यथार्थ माहित्य की उपेक्षा मुह फेर कर दिखा रहा है, समालोचना प्राकृत नहीं है। जिसकी समीक्षा उसे करनी है, उसकी अपेक्षा उसका ध्यान अपने पर है। बाजीगरी एवं ऐयाणी मे डूबे उपन्यासों की दशा और भी विचित्र है। व्याकरण व्याधिग्रस्त दिखाया गया है, काव्य दरबारी है और नाटक ककाल-मात्र रह गया है । 'साहित्य-सभा' के इन विभिन्न सदस्यों की दयनीय दशा देवकर सरस्वती को रोते हुए दिखाया गया है। 'नायिकाभेद के कवि और उनके पुरस्कर्ता' ही इसी नाम के चित्र में व्यंग्यबाण के शिकार हुए हैं। कनासर्वज्ञ सम्पादक' शीर्षक चित्र ने दिखाया गया है कि ऊँचे मंच पर एक मोटा और नाटा व्यक्ति उर्फ सम्माद र दायें हाथ में झण्डा लेकर खडा है और बाये नाथ से मानों लोगों का ध्यान आकृष्ट कर रहा है। अण्डे पर लिखा है : 'हमारे यन्त्रालय की ऐसी अद्भुत पुस्तके त्रिलोक में नहीं। हमारे यहाँ की छड़ियाँ वज्र से भी नहीं टूटती !! हमारी दवाइयो से मुर्दे भी जी उटते है !!! इन चित्र के द्वारा दम्भी नम्पादकों की पदलोलुपता, विज्ञापनवादिता और बहुजनी होने के घमण्ड पर कटाक्ष किया गया है। 'भाषा का सत्कार' शीर्षक चित्र में मातृभाषा की अवहेलना कर भारतीय बाओं द्वारा अंगरेजी-रूपी प्रेयनी को अपनाये जाने पर व्यग्य अंकित है। 'काशी का साहित्य-वृक्ष' केवल उपन्यासों को ही उत्पन्न कर रहा है, इस ओर संकेत 'काशी का साहित्य-वृक्ष' शीर्षक चित्र में है। पाठ्यपुस्तकों की दुर्दशा का चित्रण करने के उद्देश्य से 'मदरसों में प्रचलित पुस्तक-प्रणेता और हिन्दी' शीर्षक चित्र में हिन्दी को अत्यन्त भयभीत खुले केशोंवाली नारी के रूप में 'बचाओ ! बचाओ' ! की पुकार करते दिखलाया गया है। यह हिन्दी-नारी जिनमे बचना चाहती है, वह है पैट-कोट-टाई लगाये खड़ा पुरुष ग्रन्थकर्ता, जिसने एक हाथ से स्त्री के केश खींच रखे हैं और दूसरे हाथ में प्रहार के उद्देश्य से छुरा थाम रखा है। पाठ्यक्रम के रूप में व्यवहृत हिन्दी-पुस्तकों के रचयिता हिन्दी-भाषा और साहित्य पर ऐसा ही अत्याचार करते थे, यही दिखाना इस चित्र का लक्ष्य था। द्विवेदीजी द्वारा कल्पित अन्तिम चित्र 'चातकी की चरम लीला' अन्य सभी चित्रों की अपेक्षा अधिक सांकेतिक और गूढार्थ है। काशी के गंगातट पर एक ऊँचे स्थान पर एक राजपूत खड़ा दिखाया गया है और वही से एक चातकी (नारी) गगा के जलप्रवाह में कूद जाने की तैयारी में हाथ उठाये खड़ी है। घाट पर एक ओर एक भक्त और दूसरी ओर एक भक्तिन ध्यानमग्न हैं । जलधारा में चल रही एक नाव पर एक राजपुरुष बैठा है। इस चित्र में नारी अथवा चातकी कविता की प्रतीक है। राजपूत वीरगाथाकाल, भक्त और भक्तिन भक्तिकाल और नौका-विहार मे मग्न राजपुरुष रीतिकाल की अभिव्यक्ति करने के लिए अंकित हुए हैं । सन् १९०३ ई० तक आते-आते साहित्येतिहास
SR No.010031
Book TitleAcharya Mahavir Prasad Dwivedi Vyaktitva Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShaivya Jha
PublisherAnupam Prakashan
Publication Year1977
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size26 MB
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