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________________ ११२ बहुत भूलें रह गई हैं । उनका निरसन आपने अब अपनी इस पुस्तकमें कर दिया है । और टीका टिप्पणियों तथा आलोचनाओंके द्वारा उनका ऐतिहासिक महत्वभी बहुत बढ़ा दिया है । विक्रमसंवत् १२८८ के एक शिलालेखमें वस्तुपालकी दानशीलताका वर्णन इसप्रकार किया गया है - भित्वा भानुं भोजराजे प्रयाते स्वर्गसाम्राज्यभाजि । श्री एकः सम्प्रत्यर्थिनां वस्तुपालस्तिष्ठत्यश्रुस्पन्द निष्कन्दनाय ॥ ४ ॥ पुरा पादेन दैत्यारेर्भुवनोपरिवर्तिना अधुना वस्तुपालस्य हस्तेनाधः कृतो वलिः ॥ ८ ॥ अर्थात् भोज परलोक पधारे, मुञ्जनेभी खर्गसाम्राज्य पाया । अब वैसा कोई नहीं रहा । अब तो अर्थिजनोंकी अश्रुधारा पोंछनेके लिये बस अकेला वस्तुपालही है । सतयुग में विष्णु भगवान् ने अपना पैर ऊपरको बढ़ाकर बलिको पाताल भेज दिया था । इससमय, कलियुग में, वस्तुपालने अपने हाथ से उस बेचारेको नीचे कर दिया । गिरिनारवाले वस्तुपालके इन लेखोंमें गद्यभी है और पद्यभी । रचना सरस और सालङ्कार है । ये लेख वस्तुपाल और तेजपाल के बनवाये गिरिनारके जैनमन्दिरोंमें शिलाफलकोंपर खुदे हुये हैं । वस्तुपाल जैन-धर्म्मका पक्का अनुयायी था । उसने उसके उत्कर्षके लिये असंख्य धनदान किया ।
SR No.010030
Book TitleAbu Jain Mandiro ke Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1922
Total Pages131
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size5 MB
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