SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 552
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम पर्व ५२७ आदिनाथ-चरित्र पर्वतके रक्षकोंने विश्वपतिके इस अवस्थामें रहनेका हाल तत्काल ही महाराज भरतसे जाकर कह सुनाया। प्रभुने चतुविध आहारका प्रत्याख्यान कर दिया है, यह सुनकर भरतको ऐसा दुःख हुआ, मानों उनके कलेजेमें तीर चुभ गया हो । साथ ही जैसे वृक्षसे जलविन्दु टपकते हैं, वैसेही शोकाग्निसे पीड़ित होनेके कारण उनकी आँखों से भी आँसू टपकने लगे । तदनन्तर दुर्वार दुःखसे पीड़ित होकर वे भी अन्तःपुर परिवारके साथ पाँव प्यादे ही अष्टापदकी ओर चल पड़े। उन्होंने रास्तेके कठोर कङ्कड़ों की कुछ परवा नहीं की; क्योंकि हर्षे या शोकमें किसी तरहकी शारीरिक वेदना मालूम नहीं होती। कड़ गड़ जानेसे उनके पैरोंसे रुधिरकी धारा निकलने लगी, जिससे महावरके चिह्नकी तरह उनके पैरोंकी सर्वत्र निशानी पड़ती गयी। जिसमें पर्वत पर आरोहण करने में छिन भरकी भी देर न हो, इसीलिये वे अपने. सामने आ पड़नेवाले लोगोंका भी कुछ ख्याल नहीं करते थे । उनके सिर पर छत्र था, तो भी वे धूपमें ही चल रहे थे, क्योंकि जीकी जलन तो अमृतकी वर्षासे भी ठण्ढो नहीं होती। शोकग्रस्त चक्रवर्ती हाथका सहारा देनेवाले सेवकोंको भी रास्तेमें आड़े आनेवाली वृक्ष-शाखाकी भाँति दूर कर देते थे । सरिता या नदके मध्यमें चलती हुई नाव जैसे तीरके वृक्षोंको पीछे छोड़ जाती है, वैसेही वे भी अपनी तेज चालके कारण आगे-आगेचल-- नेवाले छड़ीवरदरोंको पीछे छोड़ देते थे। चित्तके वेगकी तरह तेज़ीके साथ चलनेमें उत्सुक राजा भरत पग-पग पर ठोकरें
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy