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________________ प्रथम पर्व २०१ आदिनाथ- चरित्र की हैं। अतएव संसारकी असारताको जानते हुए ये लोग वमन किये हुए अन्नकी तरह त्याग किये हुए भोगको फिर नहीं ग्रहण कर सकते ।" जब, प्रभुने इस प्रकार भोगसम्बन्धी उनके आमन्त्रणका निषेध किया, तब फिर पश्चात्ताप-युक्त होकर चक्रवर्तीने विचार किया, - “ यदि मेरे ये सर्व-सङ्ग-विहीन भाई कदापि भोगका संग्रह नहीं कर सकते, तो भी प्राण धारणके लिये आहार तो करेंगे ही ? ” ऐसा विचारकर उन्होंने ५०० गाड़ियों में भरकर आहार मँगवाया और अपने छोटे भाइयोंसे फिर पहलेकी तरह उन्हें स्वीकार कर लेने को कहा। इसके उत्तर में प्रभुने कहा, "हे भरतपति ! यह आधाकर्मी * आहार यतियों के योग्य नहीं है।" प्रभुने जब इस प्रकार निषेध किया। तब उन्होंने अकृत और अकारित अन्नके लिये उन्हें निमन्त्रण दिया; क्योंकि सरलता में सब कुछ शोभा देता है। उस समय "हे राजेन्द्र ! मुनियों को राजपिण्ड नहीं चाहिये ।" यह कह कर धर्म चक्रवर्त्तीने फिर मना कर दिया। तब ऐसा विचारकर, कि प्रभुने तो मुझे सब प्रकार से निषेधही कर दिया, महाराज भरत पश्चात्तापके कारण राहुग्रस्तचन्द्रमा की भाँति दुःखित होगये । उनको इसप्रकार उदास होते देखकर इन्द्रने प्रभुसे पूछा - "हे स्वामी ! अवग्रह + कितने तरहका होता है ? * मुनियोंके लिये तैयार किया हुआ । + मुनिके लिये नहीं किया हुआ और नहीं कराया हुआ रहने और विचरनेके स्थानके लिये जो आज्ञा लेनी पड़ती है, उसे अवग्रह कहते हैं ।
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
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