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________________ आदिनाथ चरित्र प्रथम पर्व होनेवाली और मेघके शब्दकी भाँति गम्भीर वाणीमें देशना देनी आरम्भ की । देशना सुनते हुए सभी पशु-पक्षी मनुष्य और देवतागण हर्षके मारे ऐसे स्थिर हो रहे, मानों वे किसी बड़े भारी बोझसे छुटकारा पा गये हों, इष्ट-पदको प्राप्त हो गये हों, कल्याण अभिषेक कर चुके हों, ध्यानमें डूबे हों, अहमिन्द्र-पदको प्राप्त कर चुके हो, अथवा परब्रह्मको ही पा लिया हो। देशना समाप्त होनेपर, महाव्रतका पालन करनेवाले अपने भाइयों को देखकर मनमें दुःखित होते हुए भरतराजने विचार किया,-"अहा ! अग्निकी तरह सदा असन्तुष्ट रहते हुए मैंने अपने इन भाइयोंका राज्य लेकर क्या किया ? अब इस भोगफलवाली लक्ष्मीको दूसरोंको दे देना, तो . राखमें घी छोड़नेके ही समान और मेरे लिये निष्फल है। कौए भी दूसरे कौओंको खिलाकर अन्नादिक भक्षण करते हैं ; पर मैं तो अपने इन भाइयोंको भी हटाकर भोग भोग रहा हूँ, इसलिये कौओंसे भी गया-बीता हूँ। मासक्षपणक * जिस प्रकार किसी दिन भिक्षा ग्रहण करते हैं,वैसेही यदि मैं फिर उनको उनकी भोगी हुई सम्पत्ति वापिस कर दूं, तो मेरा बढ़ाही पुण्योदय होगा, यदि वे उसे ग्रहण कर लें। ऐसा विचार कर, प्रभुके चरणोंके पास जा, अंजलि-बद्ध होकर उन्होंने अपने भाइयों से उस सम्पत्ति को भोगनेके लिये कहा। तब प्रभुने कहा, "हे सरलहृदय राजा ! तुम्हारे ये भाई बड़े ही सतोमुपी हैं और इन्होंने महाव्रतका पालन करने की प्रतिज्ञा * महीने भर उपवास करनेवाला।
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
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