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________________ आदिनाथ-चरित्र प्रथम पर्व नेसे मैंने न तो आपको जीता है और न मैं विजयी हूँ। अपनी इस विजयको मैं घुणाक्षर न्यायके समान जानता हूँ। हे भुवनेश्वर ! अभी तक इस पृथ्वीमें आप ही एक मात्र वीर हैं ; क्योंकि देवताओं के द्वारा मथन किये जाने पर भी समुद्र-समुद्र ही कहलाता है। वह कुछ बावली नहीं हो जाता। हे षट्खण्ड भरतपति ! छलाँग मारते समय गिर पड़ने वाले व्याघ्रकी तरह . आप चुपचाप खड़े क्यों हो रहे हैं ? झटपट युद्धके लिये तैयार हूजिये।" . भरतने कहा,-"यह मेरा भुजदण्ड चूसेके द्वारा अपना कलङ्क दूर करेगा।” यह कह कर फणीश्वर जैसे अपना फन ऊपरको उठाता है, वैसेही धूसा तानकर क्रोधसे लाल लाल नेत्र किये हुए चक्रवर्ती तत्काल दौड़े हुये बाहुबलीके सामने आये और हाथी जैसे किवाड़में अपने दाँतका प्रहार करता है, वैसेही वह घूसा बाहुबलीकी छातीपर मारा । असत्पात्रको किया हुआ दान, बहरेके कानमें किया हुआ जाप, चुगलखोरका सत्कार, खारी जमीन पर बरसने वाली वृष्टि, और बरफके ढेरमें पड़ी हुई अग्नि जैसे व्यर्थ हो जाती है, उसी प्रकार बाहुबलीकी छातीमें मारा हुआ चूसा भी बेकार ही हुआ। इसके बाद इसी आशंकासे, कि कहीं मेरे ऊपर क्रोध तो नहीं किया ? देवताओंसे देखे जाने वाले सुनन्दा-सुअनने चूसा ताने हुए भरत राजाके सामने आकर उनकी छातीमें वैसे ही बूंसा मारा, जैसे महावत अङ्कुशसे हाथीके कुम्भस्थल पर प्रहार करता है। उस प्रहारको न सहकर विठ्ठल
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
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