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________________ आदिनाथ-चरित्र ३३६ प्रथम पर्व शालामें पौषध लेकर बैठे। पौषधके अन्तमें मानो दूसरे बरुण हों, इस तरह चक्रवर्तीने रथमें बैठ कर सागरमें प्रवेश किया। रथको । पहियेकी धूरी तक पानी में ले जाकर उन्होंने अपने धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाई, इसके बाद, जय-लक्ष्मी की क्रीड़ा करनेकी वीणारूप धनुर्यष्ठिकी तंत्री-जैसी प्रत्यंचाको आपने हाथ से शब्दायमान कर, ॐकार देकर, मानो समुद्रको छड़ी-दण्ड देना हो, समुद्रको वेत्राघातकी सज़ा देनी हो,समुद्रके बेत लगवाने हों इस तरह तरकशमें से तीर निकाल कर, आसन पर अतिथि को बैठानेकी तरह उसे धनुष-आसन पर बिठाया। सूर्यबिम्बमें से खींची हुई किरण के जैसे उस बाणको उन्होंने प्रभास देवकी ओर चलाया। वायु-वेग से, बारह योजन-छियानवे मील समुद्रको पार करके,आकाश में चाँदना करता हुआ वह तीर प्रभासपतिके सभास्थानमें जा पड़ा। वाणको देखते ही प्रभासेश्वर कुपित हुए ; परन्तु उस पर लिखे हुए अक्षर देखकर, अन्य रसको प्रकट करने वाले नटकी तरह, तत्काल शान्त हो गया। फिर वाण और भेंटकी दूसरी चीजें लेकर प्रभासपति चक्रवर्तीके पास आये और इस प्रकार कहने लगे:"हे देव! आप स्वामीके द्वारा प्रकाशित हुआ, मैं आज ही सच्चा प्रभास हुआ हूँ। क्योंकि कमल सूरजकी किरणों से ही कमलपानीको सुशोभित करने वाला होता है। हे प्रभो! मैं पश्चिममें सामन्त राजाकी तरह रह कर, सदा, पृथ्वीके शासक आपकी आज्ञा पालन करूँगा यह कह कर महाराजका फेंका हुआ बाण, युद्धमें फेंके हुए बाणको उठाकर लाने वाले सेवककी तरह भरते
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
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