SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 329
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आदिनाथ-चरित्र ३०४ जाता -उस. लुढ़कता - लुढ़कता पत्थर गोल हो न्याय की तरह स्वयं क्षय हो जाते हैं । इस प्रमाण से क्षय होते हुए कर्म की अनुक्रम से उन्तीस उन्तीस और उनहत्तर कोटानुकोटि सागरोपम की स्थिति क्षय को प्राप्त होती है । और किसी क़दर कम कोटानुकोटि सागरोपमकी स्थिति जब बाक़ी रह जाती है, तब प्राणी यथा प्रवृत्ति-करण से ग्रन्थी देशको प्राप्त होते हैं । राग द्वेषको भेद सके, ऐसे परिणाम को ग्रन्थी कहते हैं। वह लकड़ी की गाँठ की तरह मुश्किल से छेदी जाने योग्य और बहुत ही मज़बूत होती है । हवा के झोके से किनारे पर आई हुई नाव जिस तरह फिर समुद्र में चली जाती है; उसी तरह रागादिक से प्रेरित किये हुए कितने ही जीव ग्रन्थि या गाँठ को छेदे बिना ही ग्रन्थीके पास आकर वापस चले जाते हैं। कितनेही प्राणी राह में फिसल कर नदीके जलकी तरह, किसी प्रकारके परिणाम विशेष से, वहाँ ही विराम को प्राप्त होते हैं । कोई कोई प्राणी, जिनका भविष्य में – आगे चलकर कल्याण होने वाला होता हैभला होने वाला होता है, अपूर्व्व करण से, अपना वीर्य प्रकट करके, लम्बी-चौड़ी राहकों तय करने वाले मुसाफिर जिस तरह घाटी को लाँघते हैं; उसी तरह दुर्लङ्घ्य ग्रन्थी - गाँठको तत्काल भेद डालते हैं। कितने ही चार गति वाले प्राणी अनिवृत्तिकरण से अन्तरकरण करके; मिथ्यात्व को विरल कर, अन्तमुहुर्त मात्रा में सम्यक् दर्शन पाते हैं । वे नैसर्गिक - स्वाभाविक सम्यक् श्रद्धान कहलाते हैं । गुरूके उपदेश के अवलम्बन से भव्य प्राणियों को 1 / प्रथम पर्व
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy