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________________ प्रथम पर्व ३०३ आदिनाथ चरित्र वाला एवं वहुग्राही और अबहुग्राही भेदोंवाला तथा जो इन्द्रिय और अनिन्द्रिय से उत्पन्न होता है, उसे "मतिज्ञान" जानना चाहिये । पूर्वअङ्ग, उपांग और प्रकीर्णक सूत्रों-ग्रन्थोंसे अनेक प्रकार के विस्तार को प्राप्त हुआ और स्यात् शब्दसे लांछित "श्रुतज्ञान" अनेक प्रकारका होता है। देवता और नारकी जीवों को जो भवसम्बन्ध से उत्पन्न होता है, वह "अवधिज्ञान" कहलाता है । यह क्षय उपशम लक्षणों वाला है, और मनुष्य तिर्य्यश्च के आश्रयसे उसके छ: भेद हैं । मन: पर्य्यायज्ञान ऋजुमती और विपुलमतीइस तरह दो भाँति का हैं । उनमें विपुलमती में विशुद्धि अप्रतिपादत्व से विशेषता है I समस्त पर्य्याय के विषय वाला विश्व लोचन - समान, अनन्त, एक और इन्द्रियों के विषयों से रहित ज्ञान "केवल ज्ञान" कहलाता है । समकित वर्णन | शास्त्रोक्त तत्त्वों में रुचि - सम्यक् श्रद्धा कहलाती है । वह श्रद्धा समकित स्वभाव और गुरूके उपदेश से प्राप्त होती हैं । इस अनादि अनन्त संसार के भँवरों में पड़े हुए जीवोंको ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी वेदनी और अन्तराय नामके कर्मों की उत्कृष्ट स्थितितीस कोटानुकोटि सागरोपम की है । गोत्र और नामकरण की स्थिति बीस कोटानुकोटि सागरोपम की है । और मोहनीय कर्म की स्थिति सत्तर कोट | नुकोटि सागरोपम की है। अनुक्रम से, फलके अनुभव से, वे सब कर्म - पहाड़से निकली हुई नदीमें
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
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