SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम पर्व १३५ आदिनाथ-चरित्र ही खरीद ली है' ऐसा कह कर पूर्णभद्र सेठ ने सागरचन्द्र के पिता की बात स्वीकार करली ; अर्थात् अपनी कन्या देना मंजूर कर लिया। फिर, शुभ दिन और शुभ लग्न में उनके माँ बापों ने सागरचन्द्र के साथ प्रियदर्शना का विवाह कर दिया। मनचाहा बाजा बजने से जिस तरह खुशी होती है, उसी तरह मनवांछित विवाह होने से वर वधू-दुलह दुलहिन को बड़ी खुशी हुई। प्रसन्नता क्यों न हो, वर को मन-चाही बहू मिली और बहू को मन-चाहा वर मिला। दोनों के समान अन्तःकरण होने से-एक से दिल होने से गोया एक आत्मा हो, इस तरह उन दोनों की मुहब्बत सारस पक्षी की तरह बढ़ने लगी। चन्द्र से जिस तरह चन्द्रिका शोभती है ; उसी तरह निर्मल हृदय और सौम्य दर्शन वाली शियदर्शना सागरचन्द्रसे शोभने लगी। चिरकालसे घटना घटाने वाले दैव के योगसे, उन शीलवान्, रूपवान् और सरलहृदय स्त्री-पुरुषोंका उचित योग हुआ—अच्छा मेल मिला । आपसमें एक दूसरेका विश्वास होनेसे, उन दोनों में कभी अविश्वास तो हुआही नहीं, क्योंकि, सरलाशय व्यक्ति कदापि विपरीत शंका नहीं करते अर्थात् असरल हृदय और छली-कपटी स्त्री-पुरुषोंके दिलों में ही एक दूसरे के खिलाफ ख़याल पैदा होते हैं। सीधे-सादे सरल चित्त वालोंके दिलोंमें न अविश्वास उत्पन्न होता है और न विपरीत शंका ही उठती है। . अशोकदत्तकी दुष्टता। अशोक और प्रियदर्शनाका कथोपकथन । एक दिन सागरचन्द्र किसी कामसे बाहर गया हुआ था।
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy