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________________ आदिनाथ चरित्र . १३४ प्रथम पर्व होगई है। उसमें मुझे जराभी कपट नहीं दीखता-उसके व्यवहार में मुझे छल-कपटकी गन्धभी नहीं आती। मालूम होता है, मेरे मित्रके सम्बन्धमें आपको किसीने झूठी खबर दी है-ग़लत और मिथ्या बात कही है। क्योंकि दुष्टलोग सबको दुःख देनेवाले ही होते हैं। दूर्जनों का काम शिष्टों को दुःख और क्लेश पहुँचाना ही है। उन्हें पराई हानि में ही लाभ जान पड़ता है। उन्हें दूसरों को दुखी देखने से प्रसन्नता होती है। वे दूसरों के सुख से सुखी नहीं होते। कदाचित् वह ऐसा ही हो-मायावी और धूर्त ही हो; तोभी वह मेरा क्या कर सकता है ? मेरी कौनसी हानि कर सकता है ? क्योंकि एक जगह रहने पर भी कांच काँच ही रहेगा और मणि मणि ही रहेगी-काँच मणि न हो जायगा और मणि काँच न हो जायगी।" सागरचन्द्र का विवाह । पति-पत्नी का पारस्परिक व्यवहार । इस तरह कह कर सागर चन्द्रचुप हो गया, तब सेठ ने कहा"पुत्र! यद्यपि तू बुद्धिमान है, तथापि मुझे कहना ही चाहिये। क्योंकि पराये अन्त:करण को जानना कठिन है--पराये दिलमें क्या है, यह जानना आसान नहीं।” इसके बाद पुत्रके भाव को समझने वाले सेठ ने शीलादिक गुणों से पूर्ण प्रियदर्शना के लिये पूर्णभद्र सेठ से मँगनी की; अर्थात् अपने पुत्र के लिए कन्यादेनेकी प्रार्थना की। तब 'आपके पुत्र ने उपकार द्वारा मेरी पुत्री पहले
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
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