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________________ ३१२ है | स्थान स्थान पर प्राचीन राजस्थानी या गुजराती का प्रभाव सर्वत्र दिखाई पड़ता है। इस शताब्दी की भाषा को देखते हुए यह स्पष्ट होता है कि लोकमाया से मिली जुली, प्राचीन राजस्थानी, परवर्ती अपभ्रंश तथा जूनी गुजराती के शब्दों आदि से प्रभावित एक ऐसी भाषा का विमाण होता जा रहा था, जिसे हम विबुध रूप मैं न राजस्थानी ही कह सकते हैं, और न जूनी गुजराती या उत्तर अपभ्रंश | उसका स्वरूप हिन्दी की ओर बढ़ता चला जा रहा था। शब्दों की बदलती स्थिति और उनकी तत्सम रूप ग्रहण करने की प्रवृत्ति अत्यन्त अधिक प्रबल होती जा रही थी, साथ ही नए प्रयोगों की भी कमी नहीं थी । विदेशी शब्दों का प्रयोग भी, भाषा को लोकप्रिय एवं जन साधारण के लिए अत्यन्त बोधगम्य बनाने के लिए ही तत्कालीन जैन कवि रचनाएं निर्मित करते जा रहे थे, क्योंकि उन्हें मानवता और धर्म प्रचार का उपदेश पर्व जीवन्त सन्देश सब को देना था | अतः फागु की भाषा में अत्यन्त अधिक सरलता है। शब्दों में क्लिष्टता कहीं नहीं मिलेगी। पुरानी हिन्दी या सरल हिन्दी का स्वम निर्मित करने के अतिरिक्त कवि ने उत्तर-अयमंत्र, प्राचीन राजस्थानी या पुरानी गुजराती कामी प्रयोग किया है। प्रयोग में नवीनता, उसकी बदलती स्थिति की सूचक है। इस प्रकार इस कृति में हमें कला और भाव दोनों में मौलिकता के दर्शन होते है। श्रृंगारिक काव्यों की परम्परा में इस काव्य का विशिष्ट स्थान है। यह आख्यान प्रेमास्थान है। जैन साहित्य में श्रृंगार और बिरह तथा नायक के प्रति नाविका का प्रेम चित्रित करने वाला यह प्रथम आविकालीन हिन्दी जैन फागु है। इस कृति में कवि ने काव्य-नमस्कार के अतिरिक्त जीवन को एक महान संदेश दिया है। संसार नरमर है, विकास मनुष्य की आध्यात्मिक प्रगति में बाधक है। जीवन में संयम की निष्ठा तथा नियमित जीवन ही असाधारण महत्व के होते है, काम रख रहने वाला व्यक्ति मी निर्मल हृदय तथा वैराश्य का ठीक हो सकता है। जीवन की सवामी प्रगति के लिए शारीरिक, मानसिक
SR No.010028
Book TitleAadikal ka Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Sharma
PublisherHarishankar Sharma
Publication Year
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size84 MB
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