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________________ ३११ अतः समस्त श्रृंगार पर्व वीर शान्त रस के गाभीर्य में समा जाता है। यौवन के उच्छृंखलित बलबल खलबल बहने वाले "वाढले" (बरसाती नाले) शम के कठिन कारों में बांध दिए जाते हैं, जिसमें यौवन के मधुर रस का स्थान संयम की अग्रिन ले लेती है। अतः कृति की अन्तिम परिणति निवेदयाश्रम में ही होती है। श्री अक्षयचन्द शर्मा लिखते हैं कि -कामु के प्रारंभ में कवि ने श्रृंगार रस का उत्कर्ष दिखाया है। कोड़ा की विलास चेष्टाओं के वर्णन में कवि कहीं भी कुन्ठित नहीं होता। यही यह मालूम नहीं होता कि रचना किसी जैनाचार्य की है। यदि कवि इस वर्णन को इतनी सन्मयता के साथ उपस्थित नहीं करता तो स्थूलिप की मार - विजय प्रभावहीन हो जाती । स्थूलभद्र ने एक बच्चे योधा की तरह कामदेव को ध्यान की तलवार से पछाड़ दिया।--- बही वीर रस भी फलक उठा है । कवि श्रृंगार का सम्यक रूप से उद्रेक करने में कृतकार्य हुआ है। पर स्थूतिमद्र की धान्य गम्भीर मुद्रा के द्वारा इस काव्य की चरम परिणति शान्त रस में हुई है। वीर रस और शान्त रस का यह मिलन, जिसकी वह मैं श्रृंगार रस मूर्हित पड़ा है, इस काव्य में अनूठेपन के साथ संपन्न हुआ है ।" १ कंदों के क्षेत्र में इस कृति का बहुत महत्वपूर्ण स्थान नहीं है, क्योंकि जो मी म् कवि ने प्रयुक्त किए है, ये सब पूर्व वर्णित है। कवि ने सात मा मैं बोडा और रोला का ही प्रयोग किया है। प्रत्येक मास के पूर्व बोहा मिलता है और फिर क्रम तीन रोता। वह डे बास में ऐसा नहीं हीम रोका नहीं होकर दोहे के पश्चा केवल दो ही रोता है। गायों की पर दो में विभाजन या कथा-समाति का परिचायक समझा जा सात और मा तथा दोहा के से पा सकते है। सकता है या रोता के लिए लिए ९, १३, १० जादि 71 • इस कृति में महत्वपूर्ण परिवर्तन देखे जा सकते है। अ मदों का प्रयोग स्पष्ट परिलवित होता परवती स्म हाथ नय नय art पत्रिका वर्ष ५९ अंक सं० २०१० ३३ वर्गर इमारा हिदि विरिति पद का एक
SR No.010028
Book TitleAadikal ka Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Sharma
PublisherHarishankar Sharma
Publication Year
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size84 MB
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