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________________ २२२ : रासकाव्य: राम परम्परा अत्यन्त प्राचीन परम्परा है। इस परम्परा को सम्पन्न बनाने बाली रास संशक रंचनाएं बहुत ही विशाल रूप में प्राप्त हुई है। रास परम्परा का अध्ययन करने के लिए इस तीन भागों में विभाजित किया जासकता। संस्कृत काल या प्रारम्भिक काल, अपक्ष काल क्या अपपतर काल। इन तीनों कानों में राम के मान दम्डों में विभिन्न प्रकार की परिवर्तन दिखाई पड़ते है क्या इसी परम्परा में राम, रासक, रासा, और रासों आदि कई बड्दों का निर्माण हमा है। राससाहित्य के इस विकास का अमन अत्यन्त महत्वपर्ष ब रोका प्रतीत होता है। पातीय साहित्य में यहाँ तक रास शब्द की उपलब्धि का प्रश्न है, यह बहुत ही प्राचीन लगता है। संस्कृत काल में "रास गड का परिचय पुरान साहित्य से ही उपलब्ध होने लगता है। रास परम्परा के इन तीनों कालों को दृष्टि में रखते हुए राबवत्कालीन स्वरूपों, विवानों द्वारा की मां उसकी विभिन्न परिणामी, या रास उत्तरोत्तर बबने पाले मान कन्डोग अध्यकम करने में विनिमय बनान लोगों की सहायता मिलती है। उनका पिता विन लाhि . सर्व प्रथा पर पुनि में जाने नाट्य त मा उल्लेख किया है। राग व कीडा मृत्य स्वर र उम्होंने कहानी का है.' पारमारित नाटक समानार्थी शब्द गल्लीमा म प्रयोग पिलाना बोक्सिानों का साथ साथ कीड़ा कले का उल्ले . - -- - - - - १. मादल बाबा नरनि-कीड़नीपिच्छायो । ..रि पानाती . देवर. ४-४. काबा बापावरमादि मागोवा- बोरिनमाकेन्द्र रोगोमवानामुनो भीग सका उप- महा।
SR No.010028
Book TitleAadikal ka Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Sharma
PublisherHarishankar Sharma
Publication Year
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size84 MB
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