SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११८ वाली द्वन्दि अनेकाना इष्टि है। सीसे वस्तका यथार्थ स्वम का होता है। उदाहरणार्य हाथी के किसी क विशेष को हाधी नहीं कडे । सम्पूर्ण गों को मिलाकर हाथी संज्ञा दी जा सकती है। मतः अनेकान्त मा स्यादवाद वस्तु है, नहीं है, एक . अनेक है, भादि दोनों रूपों में 'सका मन करता है। वस्तुगों का विस्म बदल पता है परन्तु उनका तत्व बही है। इस प्रकार सही बत्व अनेक रूपों विद्यमान सता है। उसको विभिन्न स्वरूपों में हम देखते है पर उसका पूल रूप को इस इन्कार नहीं किया जा सका। इस तरह विविध इन्टि किन्यों इबारा का समन्वय करके भिन्न अथवा विदा दिखाई देने वाले मतों में समुचित भास्य स्थापित करना यह अनेगव इष्टि का स्वम्य है। इस पर इस दृष्टि की व्यापकता मारता और उपयोगिता समझी जा सकती है। इस उदार दृष्टि से पवित्र बल से ही म . म कोलाहल मानत होकर मान समान में परस्पर समभाव का है। इस भाव अथवा प्रभारी अनेकांसवाद उद्देश है। इस समय निकायही निकला है कि गन्तवाव समन्यवावाद है और उसमे उत्पन्न होने वाला वो न्याभूत वाम्बाया समभाव । समभाव व्यापक मैत्री भाग का होने पर तुम्ब भूमि न्यास भूमि बन सकती है।' मे क हब स्वरुप मा गाई है। वो बस्तुर बनेक या विदयमान री RTE कामको स्वागावागे के समीप या mail मा Thotomottana.orangestimatement the soul or the prialal astier, coastane, to subaie. Nothing sharinon.maLated30dakaasa (utodmotion" . Baralandan) page3, byAAVAL LAMMAdalateratun Boriesuspe-2 Shrivallabharasaard4.89TanbalataBoaby-3,
SR No.010028
Book TitleAadikal ka Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Sharma
PublisherHarishankar Sharma
Publication Year
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size84 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy