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________________ भूमिका संप्रति तथाकथित 'नई' कहानी बहुत चर्चा का विषय बनी हुई है कहानीकारों और आलोचकों की तरफ़ से तरह-तरह के विचार प्रकट किए जा रहे हैं, जिनमें कुछ तर्कों पर आधारित हैं और कुछ में प्रचार की गंध आती है । प्रस्तुत पुस्तक में यह मानकर चला गया है कि स्वातंत्र्योत्तर काल की हिन्दी कहानी में कथ्य तथा कथन दोनों ही दृष्टियों से अनेक परिवर्तन हुए हैं, पर उसे 'नई' की संज्ञा देना उचित नहीं है । ऐसे परिवर्तन प्रत्येक काल में होते हैं और साहित्यिक विधाओं के विकास का यह स्वाभाविक चरण होता है । १९४७ के पश्चात् हिन्दी कहानियों में हुए परिवर्तनों को भी इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए और बेकार के विवादों से बचकर कहानी विधा की ओर ही ध्यान देना अधिक उचित होगा । पिछले पन्द्रह वर्षों के लगभग सभी महत्वपूर्ण कहानीकारों की रचनाओं को पढ़ने के पश्चात् मैं इसी निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि अब व्यष्टि - चिन्तन को ही अधिक प्रमुखता प्रदान की जाती है और दोनों ही दशकों में ( १९५०-६० तथा १९६० - अब तक ) आत्मपरकता का ही प्रभुत्व रहा है । कुछ कहानीकारों को छोड़कर वैयक्तिक स्तर पर व्यक्ति की कुंठा, अनास्था एवं नैराश्य को ( जो निश्चय ही देश की जीवनपद्धति की मौलिक उद्भावना नहीं है, वरन् पश्चिम से काफ़्का, कामू एवं सार्त्र आदि से उधार ली हुई है ) ही बहुसंख्यक कहानियों में चित्रित करने की चेष्टा की गई है, हालांकि उनके लिए 'मनुष्य को के यथार्थ परिवेश में देखने की चेष्टा' या 'सामाजिक दायित्व के
SR No.010026
Book TitleAadhunik Kahani ka Pariparshva
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size18 MB
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