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________________ पागल परिचयसे वञ्चित हो, तड़प-तड़पकर सही व्यथाएँ ; जगदङ्गनमें गूंज रही क्यों चिर विषादकी करुण कथाएँ ? ४ अन्तस्तलमे अस्थिरता भर कैसा मोहक जाल प्राणी, फँसते विछाता ; भव - वन्धन में ! ज्ञानी खगपति भी चकराता १५ रञ्चमात्रको, तीन लोककी माया पाई ; तृप्त न होता • व्याकुल चिन्तित होता मानव, जिसने अपनी चिता सजाई |६ हो मदान्व तृष्णामें वर्वर मानवता में श्राग विपम वृत्तियाँ मनकी सारी उथल-पुथलकर धूम चंचल है तन, चंचल जीवन, चंचलता तज, वन वैरागी, चंचल इन्द्रिय-सुखकी घातें ; ४५ लगाती ; मचातीं ॥७ हैं विचित्र सब मनकी बातें | want
SR No.010025
Book TitleAadhunik Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRama Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
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