SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्ताका अहंकार तेरा आकार वना कैसे, सागर, वतला इतना विशाल ? है विन्दु-विन्दुमें अन्तहित तेरा गाम्भीर्य अपार अतल , इनकी समष्टि यदि विखरेतो दीखे न कहीं वसुवामें जल। तेरा स्वरूप तब हो विलुप्त जो आज बना इतना कराल । तेरी सत्ताका क्या स्वल्प इस 'विन्दु-विन्दुसे है विभिन्न ? तू है अज्ञात अपरिचित-सा , इस दिव्य तथ्यने अहंमन्य । है श्रेय वता किनको उनका जो कुछ भी है तेरे कमाल ? एकक विन्दुने आ-आकर तेरा आकार बनाया है, अपने तनको तुझको देकर । तेरा गाम्भीर्य बढ़ाया है। त्यों जीवनतत्त्व वने तेरे ज्यों जीवन-पट है तन्तुजाल । जिनसे इतना वैभव पाया उनको मत फेंक, अरे, प्रमत्त , तू इनसे बना, न ये तुझसे इनको क्या हैं तेरा प्रदत्त । -सव हँसते हैं ये देख-देख, उपहास जनक तेरी उछाल ! - ३२ -
SR No.010025
Book TitleAadhunik Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRama Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy