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________________ घटाएँ विपदाकी छा घोर ! कर रहीं वरसा हैं घनघोर । हुआ पीड़ित है अग-जग आज , दुखोंका नहीं कहीं है छोर ! हुआ संत्रस्त आज है लोक . समझता पीड़ामय संसार । यहाँ केवल जीनेका नाम ! हुआ है जीवन भी तो भार !! अरे, ओ परिवर्तन नृपराज ! किया प्रसरित अपना साम्राज्य । तुम्हीं लख लो उन्नति-अवसान , प्रजाका स्वीय तुम्हारे राज्य ।। अरे, सुख-दुखके तुम करतार ! रीझते हो जिसपर प्रिय श्राप । उसे करते हो श्री-सुख पूर्ण, और करते हो मोद-मिलाप ।। खीजते जिसपर हो तुम ! आर्य , दिखाते उसको नाना दु:ख । अरे! उसको. हो तुम अभिशाप , छीन लेते उसके सब सुक्ख ।। तुम्हारी संज्ञा अहो महान् ! कभी लघु कभी विराटाकार । तुम्हीसे तुंग शिलाएँ शीर्ण कभी वनती प्रांगण आकार । - १६८ -
SR No.010025
Book TitleAadhunik Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRama Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
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