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________________ FREEEEEEEEEEEEEE चिपटकर लता वृक्षके गात , समझती थी अपनेको वन्य । और सौन्दर्य-सिन्धुकी रागि , समझती यौवन स्वीय अनन्य ।। किन्तु वे आज विरत कृग गात , मधुरिमा हुई क्षीण अभिसार । चिपटती नहीं वृक्षसे आज , समझती यौवनको है भार ॥ अहा ! वह तरु छायायुत गीत , पथिक जिसमें करते विश्राम । मनों भव-दव-दाहाँसे तप्त , आज अनुतापित है निष्काम । नयनमें था जो वीरोल्लास , देखनेको अभिनव अभिचाव । आज उनमें नीलमके सूत्र , दीखते सचमुच हुअा अभाव ॥ अहा, ! गोरेसे गिगु-मुख-हास्य , मधुर करते थे हास्य विकीर्ण । सहज वरवस पाहन उर तलक , खींच लेनेमें थे उत्तीर्ण ॥ उन्हीपर पीत-रंग मसि आज , पोतती अपनी कीर्ति अपार । भूल बैठे चंचलता हास , विरस-सा उनको आज निहार ॥ - १६७ -
SR No.010025
Book TitleAadhunik Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRama Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
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