SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 189
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मानवके प्रति अरे मानव, तू श्रव तो देख पलकसे ढपे युगल-पट खोल हर्निग वीत रहा है श्राज समय तेरा सबसे अनमोल । समझ जीवनमें इसका मूल्य यही जीवनका जाग्रत् प्राण इसे जो खोते हैं निष्काम वने फिरते है वे म्रियमाण । समयकी मधुर साधना साव प्राण अपनेपर बाजी खेल उतर पड़ रण- ग्रांगनके बीच देव-हित अपना देह ढकेल । 1 खिलाड़ी करना होगा खेल छके वैरी-दल सहसा देख वने प्यारा भारत स्वाधीन नहीं हो पर वन्वनकी रेख । मिटा दे ग्रन्थकार अज्ञान करा दे सबको सच्चा ज्ञान जुटा जीनेके सावन नित्य कला - कोलका ताना तान । मिटा रोटीका व्यापक प्रश्न वना भारतको गिखराख्ढ़ नहीं तो निश्चित ही यह जान एक दिन देश जायगा वूड़ । १६३ GOD
SR No.010025
Book TitleAadhunik Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRama Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy