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________________ जीवन प्रेममय जीवन वनूं मैं। साधना मेरी अभय हो , सत्यसे सुरभित हृदय हो; मफल तर-मी वर विनय हो , सुखट मेरा प्रति समय हो। स्वच्छता-धन घन बनूं मैं। हो मिली मुझको सफलता , और अचला-सी अचलता ; नाग हो सारी विफलता , मैं निभा पाऊं सरलता। सरसता-उपवन वनूं मैं। दृग् सदयताके सदन हों, मधुर मधुसे भी वचन हों ; मित्र मेरे मुजन जन हों, लख मुझसव मुदित मन हों। आप अपनापन वनं में। पाउँ सत्कृतमें मुगमता , त्याग दूं सम्पूर्ण ममता ; भस्म कर डालू विपमता , धार लूं निज आत्म-दमता। निर्वनोंका वन वनूं मैं। मानसिक संध्या विमल हो , भावना मेरी धवल हो; धर्ममय पल हो, विपल हो , शील भी शुभ हो, सवल हो। सोन्यका सावन वनूं मैं। - १३३ -
SR No.010025
Book TitleAadhunik Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRama Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
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