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________________ राही झूला प्रेम दिखाकर व्यर्य तुझे अपनाते ; चूस चूस पी अमृत, मसलकर फेंक, अरे इठलाते हार सृजन कर, वेव हृदय, अपने जी-भर तरनाकर ; दुनियाने पाई शोभा, तेरा संसार मिटाकर । कविसे पत्थर में कोनलना जाने, अंगारोंने वरने पानी; निस्तव्य गगन हो उ मुखर, मूकोंकी सुन भैरव वानी । हो उठे वाली दिवा, निघा का चीर गहन तममें चमके; हिमकरकी शीतल किरणोंन नानवके इंगितपर गत शत उद्दीप्त तेज रह-रह दमके । न्यौछावर हो जायें प्राणी; सुन मानवताका सिंहनाद हर दिलमें उमड़ पड़े नागर, नतमस्तक हो जायें मानी। हर सागरनें अमृत जागे । अमृत की प्याली में मानवका, एक अनर जीवन जागे || कवि, गान मधुर ऐसा ना है। १००
SR No.010025
Book TitleAadhunik Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRama Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
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