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________________ लूटी मधुमय मवुऋतु मेरी, छलनी हृदय किया है ; इस जीवनमें सुखके बदले दुखका निलय दिया है। मुझपरसे अब तुमपर जा, तुमसे जा और किसीपर; वों ही उड़ जायेंगे हनकर, अपनी मनमानी कर । निष्ठुर जगकी रीति यही है, 'सुखमें साथी' बनना ; मुन्न रहने तक साथ निभाना, दुखमें छोड़ विछुड़ना । यौवन-दीप बुझाकर तेरा स्वार्य-भरे ये नारे; तुझे चिढ़ाकर झूम उठेंगे, ले-ले पवन मनोरे । वासन्तीकी मधु छायामें, सुमुखि, प्रेम भूलो ; रस बरसाती रहो निरन्तर, मुक्त पवनमें फूलो। शूल तुम्हारे जीवन साथी, इनसे नेह लगायो ; इन काले-काले भौरोंको, कांटे चुमा उड़ानो। कुछ भी न समझ पाताहूं मैं, जगकी या मेरी ग़लती है ! मैं सुख भोगूं या दुख भोगूं, दुनिया क्या जहर उगलती है; कृछ नी न समझ पाता हूँ मैं, जगकी या मेरी गलती है। मैं पन्य पुराना छोड़ चुका, मर्यादा वन्धन तोड़ चुका ; दुनियासे तो रिस्ता ही क्या, अपनो नो मुंह मोड़ चुका । फिर क्रूर निगाहें रह-रहकर क्यों मेरे भाव मसलती हैं; कुछ भी न समझ पाता हूँ मैं, जगकी या मेरी ग़लती है। - ६ -
SR No.010025
Book TitleAadhunik Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRama Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
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