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________________ आत्म-प्रश्न मैं हूँ कौन, कहाँसे ग्राया ? महाशोक हैं, मानव कलाकर भी इतना जान न पाया । स्वर्ण छोड़ पीतलपर रीझा, सुधा त्याग पी लिया हलाहल ; चला वासनाओं के पथपर , इतना रे, भरमा श्रन्तस्तल । सच्चे सुखका स्वप्न न देखा, दुखपर रहा सदा ललचाया । अपने भले-बुरेकी मैंने समालोचना भी कवकी है ? श्रात्मिक निर्बलता भी मुझको, नहीं कभी मनमें खरी है । 'जीवन' भूला रहा, मृत्युको अविवेकी होकर अपनाया ! काश, टूट जाता भीतरसे, मोह श्रीर मायाका नाता ; " तो अपने सुख-दुखका में था उत्तर - दाता भाग्य-विधाता । किन्तु गुलामीने हैं मुझको ऐसा गहरा नगा पिलाया । एक-एक कर चले जा रहे, दिन जीवनको हँसा रुलाकर ; विघ्न वादलोंमें लिपटा है, इधर मृतक - सा ज्ञान- दिवाकर । सूझ न पड़ता ग्रन्वकारमें, क्या अपना है कौन पराया ! मैं हूँ कौन कहाँसे प्राया ? / - ७५
SR No.010025
Book TitleAadhunik Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRama Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
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