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________________ २00 -Jamailodabhbhimla inlala.abinlaiawanloddak larki hakeLakkh intolina saalomahilarasina inbindabakhtmkomatalathe wered नमन-मन जैन-रनसार 9 भांडादिक से हास्य किया स्वपुरुष में सन्तोप न किया। इत्यादि चौथे स्वपुरुष सन्तोष पर पुरुष गमन विरमणव्रत सम्बन्धी जो कोई अतिचार पक्खी दिवस में सूक्ष्म बादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया कर मिच्छामि दुक्कडं । पांचवें स्थूल परिग्रह परिमाण व्रत के पांच अतिचार-'धण धण्ण खित्त वत्थु०' धन धान्य क्षेत्र वस्तु सोना चांदी बर्तन आदि । द्विपद-दास दासी, चतुष्पद, गौ, बैल, घोड़ा आदि नव प्रकार के परिग्रह का नियम न लिया। लेकर बढ़ाया अथवा अधिक देख कर ममता वश माता, पिता, पुत्र, स्त्री के नाम किया। इत्यादि परिग्रह परिमाण व्रत सम्बन्धी जो कोई अतिचार पक्खी दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया कर मिच्छामि दुक्कडं । छठे दिक् परिमाण व्रत के पांच अतिचार-'गमणस्सउ परिमाणे.' । ऊर्ध्वदिशि अधोदिशि तिर्यदिशि जाने आनेके नियमित प्रमाण उपरान्तसे भूल गया। नियम तोड़ा, प्रमाण उपरान्त सांसारिक कार्यके लिये अन्य देश से वस्तु मंगवाई, अपने पास से वहां भेजी। नौका, जहाज़ आदि द्वारा व्यापार किया । वर्षाकाल में एक ग्राम से दूसरे ग्राम में गया । एक दिशा के प्रमाण को कम करके दुसरी दिशा में अधिक गया । इत्यादि छठे दिक् परिमाण व्रत सम्बन्धी जो कोई अतिचार पक्खी दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया कर मिच्छामि จนใจใกใจใคงจะมีไปจให้ใจไว้ใจไปให้ได้ปักใคปัจงใจให้ใช้ได้ไelะได้ใจใครได้ไ ध MAHATMENMARTHI-PRE ปใช้ไดไไไไไไไeteeledไฟักไตใจใหelecะไครไทย"ไขใจไฟไซไลดได้ไฟใน सातवें भौगोपभोग व्रत के भोजन आश्रित पांच अतिचार और कर्म । आश्रित पन्द्रह अतिचार-'सच्चित्ते पडिबढे'०-सचित-खान पान की वस्तु नियमित से अधिक स्वीकार की । सचित्त से मिली हुई वस्तु खाई। तुच्छ औपधि का भक्षण किया । अपक्व आहार, दुपक्क आहार किया। ई कोमल इमली, वूट, भु, फलियां आदि वस्तु खाई । “सचित्त दव्य । 3 विगई वाणह तम्बोल वत्थ कुसुमेसु । वाहण सयण विलेवण बम्भ दिसि
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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