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________________ ఇతరులను మంతను న ४४० వరకు RamGERMAIIMIRECEREAKESAMEE Rasisamarpalishindialistimate వనందనవనం जैन-रनसार हिवे तिरछा लोकमें, नर तिथंच विशेष ।। भेद विचार सुनो तुमे, तनमन कर शुभ लेश ॥२॥ जम्बुद्वीपे जे कह्या, शाश्वत श्री जिन सार। मेरू ऊपर शोभता, वन्दो भवि सुखकार ॥३॥ कंचन गिरि पर शोभता, शाश्वत जिनवर देव । भाव धरी सेवो सदा, मन वांछित फल लेव ॥४॥ वलि गजदन्त ऊपरे, शाश्वत श्री जिनचन्द । वक्षस्कारे वलि नमू, शाश्वत श्री सुखकंद ॥५॥ जम्बू वृक्षे वलि नम, भाव धरी मन रंग। श्री वैताढ्य गिरीदना, वंदु धर उछरंग ॥६॥ नन्दी सर रुचकादिके, भाख्या श्री भगवंत । भाव धरी मुनि वांदता, पावे सुक्ख अनंत ॥७॥ श्री मानुषोत्तर ऊपरे, चैत्य कह्या जिनराज । ते वंदे मुनि प्रेम सूं, निज गुण भक्ति समाज ॥८॥ ॥ ढाल फागणी ॥ (ब्रज मंडल देश दिखावो रसिया) अब तिरछो लोक सुनो ज्ञानी, अब तिरछो लोक सुनो। तिरछो लोकमें द्वीप समुद्र हैं, असंख्याता कहे ज्ञानी ॥अब० ९॥ जलचर थलचर जीव सबेही, रहे सदा कहे गुरु ध्यानी ॥ अब० ॥ अणपन्नी पमुहा देवन की, राजत है जहां राजधानी ॥ अब० १०॥ नव सौ योजन ऊपर कहिये, जोतिष देव महा ज्ञानी ॥ अब० ॥ ग्रह गण तारा सूरज चन्दा, चरथिर रूप भविक जानी ॥ अब० ११ ॥ ऊरध भागमें अपर उदधि हैं, आधेमांहि चरम पानी । अब० ॥ लवण समुद्र में लवण सरीखो, मीठो चरम उदधि पानी । अब० १२ ॥ जिन प्रतिमा आकारे जलचर, देखि लहे व्रत बहु प्रानी ॥ अब० ॥ पहिलो जम्बु द्वीप बखाणो, लाख योजनो शुभ थानी ॥ अब० १३ ॥ जगती वेदी करि अति शोभित, केकि करत
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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