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________________ नम ३१० । जैन-रत्नसार नप्रगमनत्र प्रकल्पग्रस्पर मनमनन्त्रमनप्रनय प्रस्नानानन्-Ramailor ॥ श्लोक ॥ . विमल केवलभासनभास्कर, जगति जन्तु महोदयकारणं । जिनवरंबहुमान जलौघतः, शुचि मनः स्नपयामि विशुद्धये ॥४॥ ॐ ह्रीं परम परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञानशक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमजिनेन्द्राय जलं यजामहे स्वाहा ॥५॥ ___ अर्थ-मैं शुद्ध मन से निर्मल केवलज्ञानरूपी किरणों के उद्योतक और संसारी जीवों के महान् उदय के कारण जिनेन्द्र भगवान् को बहुत आदर के साथ जलों से अपनी आत्मशुद्धी के लिये स्नान कराता हूं |१|| चन्दन पूजा ॥ दोहा॥ बावन चन्दन कुंकुमा, मृगमदने धनसार ॥ जिन तनु लेपे तसु टले, मोह सन्ताप विकार ॥१॥ ॥ ढाल ॥ सकल सन्ताप निवारण तारण सहु भविचित्त । परम अनीहा अरिहा तनु चरचो भविनित्त ॥ निज रूपे उपयोगी धारी जिन गुणगेह । भाव चन्दन सुह भावथी टाले दुरित अछेह ॥२॥ ॥चाल॥ जिन तनु चरचतां सकल नाकी । कहे कुग्रह ऊष्णता आज थाकी ॥ सफल अनिमेपता आज म्हां की । भव्यता अम्ह तणी आज पाकी ॥३॥ ॥श्लोक ॥ सकल मोहतमिश्र विनाशनं, परम शीतल भाव युतं जिनं । विनयकुंकुम चन्दन दर्शनैः, सहज तत्त्वविकाशकृतेऽर्चये |४|ॐ ह्रीं परम परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञानशक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमजिनेन्द्राय । चन्दनं यजामहे स्वाहा ॥५॥ अर्थ-परमतत्व प्रकाश के लिये सम्पूर्ण मोह ( अनानरूपी ) अन्धकार के दूर करनेवाले एवं परम शान्त स्वभावसे युक्त जिनेन्द्र भगवान्को मैं विनयल्पी कुलम (फेशर) और दर्शनरूपी * चन्दनों से पूजा करता है। 2xt JamabKHEMASKisketbathletinkali kaline kilxBEHAYThridebakrilatiotishnike-babAREIGARERAKASO22.2.2 Mas.
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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