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________________ ल १६८ जैन-नसार बारस बारस एगो, पणवीस अट्ठाइ पाण पण्णरस । अट्ठय उववासा, सव्वंगं सढ चउसठ्ठी ॥५॥ वकार सहिय पोरिसी, पुरमढ्ढ अवढ्ढ एग दुभत्तेहिं । एगट्ठाणय णिविगई, विलेहिं अत्थं विलेणं च ॥६॥ पण याला चउबीसं, सोलस चउचउहि अट्ठहि कम्मेणं । चउइ दुहिय एगेणय, आयरणाहोइ उववासे ॥७॥ पैंतालीस आगम तप विधि www.ron गुरु के पास शुभ दिन पैंतालीस आगम तप ग्रहण करे और दृज, पञ्चमी, अष्टमी, ग्यारस तथा चौदस आदि ज्ञान तिथिके दिन अनुकमसे उपवास और एकास करे । जिस दिन जिस आगम का जाप करना हो उस दिन उस आगम का जाप करे और पढ़ें । सिद्धान्त लिखावे, शास्त्र छपवावे, पढ़नेवालों की यथाशक्ति सहायता करे और ज्ञान की वृद्धि करे । पैंतालीस आगमका स्तवनपढ़ अन्यथा किसी दूसरे से श्रवण करे । इस प्रकार ४५ दिन पूर्ण होने पर पैंतालीस आगम की पूजा करावे । मन्दिर अथवा - उपाश्रय में ज्ञानोपकरण चढ़ावे । इस तपस्या के फलस्वरूप जड़ता तथा मूर्खता का नाश हो सुबुद्धि और शुद्ध आत्मज्ञान प्राप्त होती है । ४५ आगमों का जाप भी ४५ आगमों के स्तवन के साथ दिया गया है । ग्यारह गणधर तपस्या विधि शुभ दिन शुभ मुहूर्त्तमें गुरुके मुखसे ११ गणधर तप ग्रहण करे । ग्यारह दिन उपवास या एकासणा करे । जिस दिन जिस गणधर महाराज का तप हो उस दिन उन्हींके नामकी २० माला का जाप करे । स्तवन के साथ ही ग्यारह गणधरों के जाप दिये गये हैं । चूंकि ये भगवान् महावीर स्वामी के प्रमुख शिष्य थे, जाति के ब्राह्मण थे, और द्वादशाङ्गी वाणी के रचयिता थे । अतः माङ्गलिक होने पर भव्यात्माओं के लिये ये तप भी
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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