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________________ wwwwwwwww Aurwwwwwwwwwwwwwwwwww salsasherishali-lashlilarkikalinsarsakseelonlodsliliakalamlilalonlodkath विधि-विभाग २६ जब गुरु धर्म कथा कहें तब शून्य चित्त से सुने, कदाचित् । ध्यानसे सुनकर उनका मान न करे ( अहा ! गुरुजी आप शास्त्रके परमार्थ क्या बतलाते हैं धन्य हैं ) ऐसा कहना चाहिये किन्तु नहीं कहना।। २७ गुरु जब धर्म उपदेश देवें तब बोले कि इसका अर्थ आप बराबर नहीं करते हैं अथवा आपको इसका अर्थ करना नहीं आता है । २८ गुरु जो कथा फरमाते हों उस कथा को बीच में ही भंग करके आप दूसरोंको अथवा सुनने वालों को कथा कहना और समझाना । २९ गुरु जो कथा कहते हों उस कथा से गुरुओं तथा सब सज्जनों को आनन्द प्राप्त हो रहा हो और चित्त लीन हो गया हो, ऐसा जानते हुए भी शिष्य बोले कि महाराजजी ! गोचरी का समय हो गया है इसलिये कथा छोड़िये, नहीं तो गोचरी मिलनी दुर्लभ हो जायगी। ३० गुरुजीनेजो अर्थ बतलाया हो वही अर्थ व्याख्यान बन्द हो जानेके बाद शिष्यवर्गोंके सम्मुख अपनी बुद्धिकी निपुणतादिखानेकेलिये व्याख्यानदेना। ३१ गुरुओं के संथारे का या गुरुओं के पांवों से पांव का स्पर्श हो जाय तो शीघ्र क्षमा न मांगना । ३२ गुरुओं के आसन पर खड़ा रहना या सोए रहना । ३३ गुरुओं से ऊंचे स्थान या बराबर आसन पर बैठना * गुरु वन्दन विधि बराबर गृहस्थ के योग्य शुद्ध कपड़े पहन गुरु के पास जावे । दर्शन होते ही "मत्थएण वंदामि कहना?" बाद में गुरु से कम से कम साढ़े तीन । हाथ दूर रहे । प्रथम तीन खमासमण देवे और बाद में खड़े खड़े इच्छकार बोले और अन्मुहिओमि 'इच्छं खामेमि देवसियंर तक का पाठ बोले । तदनन्तर नीचे बैठ मस्तक नमा कर जीमना ( दहिना ) हाथ भूमि का पर स्थापन कर बायें हाथ की मुट्ठी बांध मुख के पास रख शेष अभुडिओमि सूत्र पूर्ण करे । पीछे यथाशक्ति पच्चक्खाण करे । १-पृष्ठ २।२-अगर प्रातःकाल हो तो राइझ' कहे। * उपर्युक्त आशातनाओं में से कोई भी आशातना नहीं करनी चाहिये । a lalshutorialishakimlassistantialayalakshokdpateletaliatahata kathaharaa s a ktishtotalakarlotstorestateotatnamah
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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