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________________ Ratestablestatestlinlestasex.ladaslelesbhabisaslestostatistiatolastisthleoaslantatadarlalasantalistmistantaarksheetdootohitnishtastichatatute १२१ विधि-विभाग णमोक्कार का काउसग्ग करे। शेष विधि पक्खी प्रतिक्रमण के समान करे। साम्वत्सरिक प्रतिक्रमण की विधि ___साम्वत्सरी प्रतिक्रमण की विधि पक्खी प्रतिक्रमण की तरह ही समझना। जहां जहां पक्खिय' शब्द आया हो वहां वहां 'सम्वत्सरियं' शब्द कहे । इसमें बारसण्हं मासाणं, चौबीसण्हं पक्खाणं तिण्णि सय सहि राइंदियाणं जं किंचि०' कहना और तपकी जगह 'अट्ठमण' कहे और तीन उपवास, छह आयम्बिल, नौ णिवि, बारह एकासणे, चौबीस बिआसणे और छह हजार सज्झाय कहे । चालीस लोगस्स या १६०११ णमोक्कार का काउसग्ग करना । शेष विधि पक्खी के समान करना। जिन दर्शन विधि सर्व प्रथम स्वच्छ (पवित्र) वस्त्र धारण कर मन्दिरजीमें जावे । मन्दिरजीकी सीढ़ियों पर पैर रखते ही 'णिस्सीहि' शब्द का उच्चारण करे (इससे सावध व्यापार का निषेध होता है ) मन्दिरजी में प्रवेश कर । मन्दिर सम्बन्धी ८४ आशातनाओं को टालते हुए मन्दिरजी की देखभाल कर तीन प्रदक्षिणा दे भगवान् के सम्मुख उपस्थित हो दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर रख ‘णमोजिणाणं' कहे तथा पुनः ‘णिस्सीहि' कहे जिससे मन्दिर सम्बन्धी आरम्भ का भी निषेध हो जाय । तत्पश्चात् धूप के मन्त्र सहित धूप खेवे और चावल लेकर तीन ढेरी करे, साथिये के ऊपर ( सिद्ध शिला के आकारका) चन्द्रमा बनावे तथा मुझे 'मोक्ष प्राप्त हो ऐसी भावना भावे । फिर नैवेद्य आदि मन्त्र सहित उन ढेरियों पर चढ़ाकर फल चढ़ावे । तथा तीसरी 'णिस्सीहि' कहे यहांसे द्रव्य क्रियाका भी निषेध हो जाता है। स्वस्तिक' साथिये की चारों लकीरों को चारों गतिए समझ कर नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य, देव इन गतियों से छुटकारा पाने के लिये तीन ढेरियां रूप सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन, 3 सम्यग् चारित्र रत्नत्रय रूप आत्मीक गुणों को प्राप्त कर अर्धचन्द्राकार जो सिद्ध शिला बनाई जाती है, उसके प्राप्त करने की भावना भावे। इसलिये भगवान् के सम्मुख पहले साथिया फिर तीनों देरी बाद में अर्धचन्द्राकार (सिद्ध शिला ) बना कर उपरोक्त भावना भावे । Rareeablesborolarshotstalestonialandanaslestinentiskalonloaleslcoko Yastaiokinatantialistasiatani kobxdiobolanki adamlokalaakoladisartalallantoolaalaakaastactarticlestiabplatooledistantialanketbalatial-ekakda namkala Taaliatetri-elations 16
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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