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________________ ८८ जैनराजतरंगिणी वर्ष में यदुवंश का विनाश हआ था।' ज्योतिषियों ने धूल वर्षा का फल दुभिक्ष बताया था। मार्ग शीर्ष मास मे भयंकर हिमपात हुआ। समस्त काश्मीर उपत्यका जैसे शोक प्रतीक श्वेत वस्त्र धारण कर ली थी। अकाल भयावह था। चोर घरों से स्वर्ण इत्यादि त्यागकर अन्न लेते थे। भीख मांगने वालों का झुण्ड घूमाता था। शाक, मूल एवं फल का आहार कर, जनता जैसे प्रतिदिन व्रत करती थी। थोड़ा शाक तथा चावल पका कर, कुछ लोगों ने जीवन धारण किया ।' चावल महँगा था। घी, नमक, तेल सस्ता हो गया था। काश्मीर धनधान्य पूर्ण देश था । यह बात केवल कहानी मात्र शेष रह गयी थी। पूर्वकाल में तीन सौ दीनार से एक खारीधान मिलता था । दुर्भिक्ष समय में पन्द्रह सौ दीनार में एक खारीधान प्राप्त नही होता था। सुल्तान ने राज्य कोश द्वारा किसी प्रकार धान मँगाकर, प्रजा का पालन किया। श्रीवर उत्तम उपमा देता है-'राजाओं के उपद्रवकाल मे चोर, और अन्धकार मे अभिसारिकायें तथा दुर्भिक्ष मे धान्य विक्रेता लोग सन्तुष्ट होते हैं। (१:२:३१) जिन भ्रष्टाचारी वणिकों ने अधिक मूल्य पर धान बेचा था। सामान्य स्थिति लौटते ही सुल्तान ने लोगों का धन पहले मूल्य पर वापस दिला दिया। (१.२:३२) दुर्भिक्ष काल मे लोग अखरोट खाते थे। राजा ने उन्हे काम देने के लिए वृक्षों से तेल निकालने का आदेश दिया। (१:२३३) इसी प्रकार ऋणी एवं ऋण दाता की व्यवस्था सुल्तान ने समाप्त कर दिया। (१.३:३४) धनिकों ने गरीबों की गरीबी का लाभ उठाकर, थोड़ा धन देकर, अधिक ऋण पत्र लिखा लिया था। उन्हे अवैधानिक करार दे दिया। इस दुभिक्ष काल मे काश्मीर मण्डल मे चौसठ कलाये, शिल्प, विद्या, सौभाग्य सब कुछ निष्प्रयोजन हो गया था। (१:२:३५) श्रीवर कितना सुन्दर लिखता है-'पद, वाक्य, तर्क, नवीन काव्य, कथा, गीत, वाद्य, रस, नृत्य, कलाये, तथा सुरति प्रपंच मेंदक्ष वनिताये, भूखे को सुख नही देती।' (१:२:३६) श्रीवर ने प्रथम तरंग के द्वितीय सर्ग का नाम दुर्भिक्ष वर्णन रखा है। प्रथम तरंग के सातवे सर्ग में श्रीवर ने काश्मीर के एक और दुभिक्ष का वर्णन किया है । अनावृष्टि के कारण काश्मीर तथा बाहरी देशों में घोर दभिक्ष पड़ा । दूसरे देशों से क्षुधा पीडित दलो का काश्मीर में आगमन होने लगा। सुल्तान की जिज्ञासा पर वे आगन्तुक बोले-'हे, राजन् !! अनेक देशों में वृष्टि के अभाव से चारों ओर से सबका अन्तकारी, काल सदृश दुष्काल उपस्थित हुआ है । (१:७:२१) भूख से पीड़ित कुत्ते आदि शून्य गृह स्थित, शव समूहों को निःशेष कर, एक दूसरे का मास खाने लगे है। (१:७२३) हे ! राजन स्पर्श एवं जठन के का जिन प्रायश्चित करते देखा गया वे द्विजश्रेष्ठ भी सर्वभक्षी बन गये । (१:७.२४) भक्ष्य पदार्थ को देखने में अक्षम होकर, विप्र स्त्रियाँ, सविष पका अन्न खाकर, अपनी तथा अन्य को प्राणो रहित कर दी। (१:७:२५) ग्राम एवं पुर मानव शून्य हो गये। (१:७:२६) पृथ्वी पर क्षुधार्थ तप्त कुंक्षभरी (पेटू) जन, पत्नी के प्रति प्रेम, पुत्र के प्रति स्नेह, पिता के प्रति दक्षिण्य, भाव भूल गये। (१:७:२७) 'खुरासान का सुल्तान अकाल के कारण शत्रु भूमि में चला गया था। कोटि सैन्य युक्त उस अवूसैद को रण मध्य इराक के सुल्तान ने मार डाला । (१:७:२९) प्राण रक्षा हेतु उस युद्ध में हुए असख्य तुरुष्कों एवं राजाओ का क्षय हुआ (१:७:३०) एक राजा दूसरे से अन्न के लिये युद्ध करने लगे। (१:७:२१) सुल्तान जैनुल आबदीन ने आगन्तुक उन क्षुधा पीड़ितों की रक्षा किया। (१:७:३३) जल प्लावन : काश्मीर के तीन घोर प्राकृतिक शत्र थे-तुषारपात, जल प्लावन एवं अग्नि दाह । तीनों ही के कारण काश्मीर की समृद्धि अकस्मात अवरुद्ध हो जाती थी। तुषारपात एवं जल प्लावन प्रकृति की क्रूर दृष्टि एवं 10.00)
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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