SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४० जैनराजतरंगिणी १४५२, १४६०, १४६३, १४५९, १४५७, १४३९, १४६४, १४६३ तथा १४७० ई० क्रम से दिया है। द्वितीय तरंग के पश्चात् संवत् का क्रम ठीक चलता है। इससे प्रकट है कि श्रीवर ने सन् १४६४ ई० के पूर्व रचना मे हाथ नहीं लगाया था। जैनुल आबदीन की मृत्यु के पश्चात् सन् १४७० ई० से वह घटना क्रम सन् वार देता है। इस प्रकार इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि श्रीवर ने राजतरंगिणी लिखना सन् १४६४ ई० के पश्चात् प्रारम्भ किया था। प्रथम तरंग निससन्देह उसने जैनुल आबदीन की मृत्यु पश्चात् लिखा था । जैनुल आबदीन के पुत्र हैदर शाह की मृत्यु सन् १४७२ ई० मे हई थी। उसने केवल दो वर्ष शासन किया था। इससे प्रकट होता है कि उसने द्वितीय तरंग की रचना सन् १४७२ ई० के पश्चात् की थी। श्रीवर ने चाहे लिखने का क्रम जैनुल आबदीन के समय आरम्भ किया हो, परन्तु प्रथम तरंग का समापन सुल्तान की मृत्यु पश्चात् हुआ था। तृतीय तथा चतुर्थ तरंग एक साथ लिखा गया था। इसका आभास तरंग तीन के तृतीय श्लोक से मिलता है । वह लिखता है-'जिस नृपति की जीविका का भोग किया, अनुग्रह एवं प्रतिग्रह प्राप्त किया, मैं श्रीवर पण्डित अपने को ऋण मुक्त होने के लिये उसका वृत्त वर्णन करूंगा।' (३:३) सुल्तान ने उस पर जो उपकार किया था, उससे उऋण होने की भावना से ग्रन्थ रचना में उसने पुनः हाथ लगाया था। तृतीय तथा चतुर्थ तरंगों में वर्ष क्रम बिल्कुल ठीक दिया गया है। कही व्यतिक्रम नही हुआ है। पूर्व घटना का वर्णन न कर, सन् १४७२ ई० से सन् १४८६ ई० तक की घटनाओं का क्रम से वर्णन किया है। इससे प्रकट होता है। हसन शाह की मृत्यु के पश्चात् तृतीय तरंग लिखने मे हाथ लगाया और सन् १४८६ मे समाप्त किया। तृतीय तथा चतुर्थ तरग सन् १४८४ के मध्य दो मास कृष्णाजन्म नवमी से १४८६ की रचना है । इस प्रकार प्रथम तथा द्वितीय तरंगो का रचना काल सन् १४७० ई० के पश्चात् तथा सन् १४७२ ई० के लगभग हुआ था। मंगलाचरण : कल्हण, जोनराज एवं शुक ने प्रत्येक तरंगों के आरम्भ मे मंगलाचरण एवं वन्दना लिखी है। श्रीवर के इस व्यतिक्रम का यही कारण है कि प्रथम तरंग का मंगलाचरण लिखकर, द्वितीय तरंग और तृतीय तरंग का मंगलाचरण लिखकर चौथे तरंग को तृतीय तरंग का रचना क्रम मान लिया है। श्रीवर ने तरंग प्रथम तथा तरंग तृतीय में मंगलाचरण लिखा है। तरंग दो तथाचार बिना मंगलाचरण के आरम्भ किया गया है। कल्हण ने मंगलाचरणों में यश, जय, रक्षा, पाप क्षय एवं प्रसन्नता की कामना की है। जोनराज ने मंगलाचरण में लोक के सद्भाव एवं सम्पत्ति की कामना की है। उस ने मंगल कामना के लिये, किसी देवी या देवता का स्मरण नहीं किया है। उसने लोक कल्याण की कामना की है। श्रीवर जोनराज का. शिष्य है। उसने कल्हण, जोनराज के मंगलाचरण को पढ़ा था। उनके दर्शन का ज्ञान था। कल्हण प्रत्येक तरंग का आरम्भ अर्धनारीश्वर की वन्दना से किया हैं। जोनराज ने कल्हण का अनुकरण कर, अर्धनारीश्वर की वन्दना की है। श्रीवर कल्हण एवं जोनराज का अनुकरण करता अर्धनारीश्वर की वन्दना किया है। श्रीवर के पश्चात् शुक ने भी अर्धनारीश्वर की वन्दना की है। चारों राजतरंगिणी कारों ने अर्धनारीश्वर की आराधना की है। किन्तु चारों का दृष्टिकोण भिन्न है। कल्हण हिन्दू कालीन कवि था। काश्मीर स्वतन्त्र था। राजभाषा संस्कृत थी। संस्कृत काव्य का कश्मीर केन्द्र था। दर्शन, योग एवं तन्त्रों का केन्द्र था। कल्हण राजकवि नहीं था। किसी का आश्रित नहीं था।
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy