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________________ २८५ २:११३-११६ ] श्रीवरकृता अपशकुन : अत्रान्तरे महोत्पाता दिव्यभौमान्तरिक्षगाः । अहंपूर्विकयेवापुन पतेर्जनकम्पदाः ॥११३ ॥ ११३. इसी बीच लोगों को कम्पित करनेवाले आकाश, भूमि एवं अन्तरिक्ष ( वायु ) में उत्पन्न महान उत्पात स्पर्धापूर्वक राजा को दिखाई दिये । तथाहि प्रथमं राज्ञि पुष्पलीलाचिकीर्षया । गते मडवराज्योर्वी भूमिकम्पोऽभवन्महान् ।। ११४ ॥ ११४. पुष्पलीला' करने की इच्छा से, राजा के मडवराज जाने पर, महान् भूकम्पहुआ। अस्मत्कर्तृजनः कोऽपि सुखी नैवाधुना स्थितः । इतीव देशे तत्कालं चकम्पुर्जनवद्गृहाः ॥ ११५ ॥ ११५ हम लोगों का कोई निर्माता अब सुखी नही रहेगा, इसीलिये मानो देश में उस समय मनुष्य की तरह घर काँपने लगे। उदभूत् पूर्वदिक्पुच्छः केतुर्नभसि विस्तृतः । पूर्व बहामखानेन दृष्टोरिष्टस्य सूचकः ।। ११६ ॥ ११६. पूर्व दिशा की ओर आकाश में अनिष्टसूचक, विस्तृत पुच्छ केतु' ( पुच्छल तारा ) उदित हआ। बहराम खांन ने उसे पहले देखा। पाद-टिप्पणी : महाभूता भूमि कम्पे चत्वारः सागराः पृथक् । 'अन्तरिक्ष' पाठ-बम्बई। भीष्म० : ३ : ३८ । ११३. (१) भौमा: द्रष्टव्य टिप्पणी:१: पाद-टिप्पणी : ७ : २६४। ११६. ( १ ) केतु : महाभारत काल मे केतु पाद-टिप्पणी: का उदय हुआ था। इसका विशद वर्णन महाभारत ( भीष्मपर्व ३ : १३-१७ ) में मिलता है। श्रीवर ११४. (१) पुष्पलीला : द्रष्टव्य पाद ने कुछ ही अपशकुनों को उल्लेख किया है । (द्रष्टव्य टिप्पणी : जैन० : १ : ४ : २ । पाद-टिप्पणी : १:१ : १७४ )। धूमकेतु के तुओं में (२) भुकम्प : महाभारत काल उपस्थित सर्वप्रथम है (वायु० : ५३ : १११) । केतु के उदय होने पर इसी प्रकार के अपशकुनों का वर्णन किया काल से पन्द्रह दिन के अन्दर शुभ या अशुभ फल गया है। श्रीवर उन्ही का अनुकरण करता कुछ निकलता है। का उल्लेख करता है तुलसीदास ने लिखा है : अभीक्ष्णं कम्पते भूमिरर्क राहुरूपैति च । कह प्रभु हँसि जनि हृदय डेराहू ।' भीष्म०:३:११॥ लूक ना असनि केतु नहि राहू ।।
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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