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________________ २:८६-८८] श्रीवरकृता २७५ निजपरिभवभीत्या बन्धवो यान्ति दूरं ___ त्यजति च निजपत्नी का कथा सेवकानाम् । प्रतिदिनमृणहेतोस्ताडनं बन्धनं वा ___ भवति हि यमभङ्गाद् राजभङ्गोऽतिकष्टः ॥ ८६ ॥ ८६. निज परिभव की भीति से. बन्ध दर चले जाते हैं, अपनी पत्नी भी त्याग देती है, सेवकों की बात ही क्या? ऋण के लिये प्रतिदिन ताडन एवं बन्धन किया जाता है, इस प्रकार निश्चय ही यम भंग ( दण्ड ) की अपेक्षा राजभंग ( दण्ड ) अति कष्टप्रद होता है । स्फुलिङ्गालिङ्गनात् क्रुद्धकृष्णसर्पोपसर्पणात् । मकराकरपाताच्च कष्टं नृपतिसेवनम् ॥ ८७ ॥ ८७. दहकते अग्नि का आलिंगन, क्रुद्ध कृष्णसर्प के समीप गमन तथा समुद्र में पतन की अपेक्षा, नृपति का सेवन, अधिक कष्टप्रद होता है । प्रद्युम्नगिरिपादान्ते चण्डालैर्निश्यनाथवत् । इट्टिकाभिस्ततो नीत्वा भूगर्तेषु निवेशिताः ॥ ८८ ॥ ८८. अनाथ सदृश, उन लोगों को चाण्डालों ने रात्रि में वहाँ से ले जाकर, प्रद्युम्नगिरि के पादमूल में, भू-गर्त ( कब्र ) में, निवेशित कर, इहिप्का से ढंक दिया। दाह-संस्कार का पक्षपाती था और गाड़ने की निन्दा नही होते थे। ठीक से उन्हे नमस्कार या उनके किये किया है। श्लोक ९१ में वैश्रवण भट्टादि जिन्होंने नमस्कार का उत्तर भी नही देते थे। हिन्दुस्तान की अपने जीवन में अपने लिए कब्र निर्माण कराया था, आजादी के पश्चात् संसद तथा विधान मण्डलों के उनकी मृत्यु पर वे काम न आये। वे जहाँ मरे, सदस्य जिस सम्मान तथा राजकीय भोग का उपयोग वही गाड़ दिये गये । किसी ने मृतात्मा की भावनाओं करते है, वे ही चुनाव हारने पर, अथवा का आदर कर, उन्हे उनके कबरों मे सुलाकर पुनः वहाँ के सदस्य न रहने पर, उनके यहाँ जो नित्य उनकी अन्तिम इच्छा पूर्ति नही की। काल हाजरी देते थे, वे उलटकर फटकते भी नही । मै भी किसी की चिन्ता नहीं करता। पन्द्रह वर्ष तक पालियामेण्ट तथा तीन वर्ष तक द्र० : १:७ : २२६; २ : ८५, ८९; ३ : उदयपुर हिन्दुस्तान जिंक सरकारी कारखाने का पाद-टिप्पणी अध्यक्ष था। वहाँ से हटने पर किसी ने स्मरण भी ८६. (१) राजभंग : श्रीवर ने व्यवहारिक नही किया । यदि मैं सरस्वती का उपासक न होता तो समय काटना कठिन था। यही कारण है कि पद कठोर सत्य लिखा है। भारत में राज्यों के विलय होने, उनकी प्रीवीपर्स बन्द तथा सभी राजकीय से हटने पर कितनो ही का वौद्धिक सन्तुलन बिगड जाता है। उनकी अवस्था दयनीय हो जाती सम्मान वापस ले लेने पर, उनकी जो विपन्नावस्था है। उस समय अपमान एवं उपेक्षा के कारण मर हई, वह वर्णनातीत है। उन्ही के यहाँ के पले नाकर, जाना अच्छा अनुभव होने लगता है। चाकर, उन्ही से वृत्ति प्राप्तकर पढे बुद्धिजीवी तथा पाद-टिप्पणी : अन्य मुखापेक्षी लोगों ने इस बुरी तरह से आँखें 'इहिका' पाठ-बम्बई। फेर ली कि उनके भी आनेपर उठकर खड़े भी ८८. (१) प्रद्युम्नगिर : शारिका पर्वत अथवा
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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