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________________ २४ जैन राजतरंगिणी था । स्वयं कुशल गायक एवं वीणावादक था । संगीत सम्बन्धी शंका समाधान करता था । वह स्वयं लिखता है - 'सभा में स्वनिर्मित, अनुगीत करते, उस गायक से सन्तुष्ट होकर, सुल्तान ने उसे प्रचुर सुवर्ण प्रदान किया । प्रबन्ध गीत में दक्ष, वह किसी समय सुल्तान के सम्मुख सर्व लीला नामक प्रबन्ध देशी भाषा मे गाया । अनभिज्ञता के कारण सुल्तान ने उसका लक्षण से पूछा । शीघ्र ही मैं भरत शास्त्र आदि का उदाहरण देकर, पद, पाठ स्वरो, एव ताल रागों से मनोहर, षडंग युक्त, उसे ( गीत ) सुनाया । उदार हृदय राजा सुनकर मुग्ध हो गया ।' उसके गीत का भंग वैकल्प जानकर, सुल्तान ने मुझसे कहा - ' गीत का दर्प करने वाले, इसके साथ सभामध्य वाद करो ।' 'ऐसा हो' - यह कहने पर दोनो में वाद (शास्त्रार्थ) कराया। सभा में वाद होने पर, गीत ग्रन्थ का अवलोकन करने से और मुझसे प्रबन्धों को सुनकर आश्चर्यान्वित वह गदन से बोला- 'अहो ! काश्मीरी !! तुम, शास्त्र वेत्ता एवं चतुर हो' - इस प्रकार कहकर, मुझे आलिंगन किया और स्पष्ट कहातुम मेरे गुरु हो । उस वाद विजय से प्रसन्न सुल्तान ने शीघ्र ही मुझे कौशेय वस्त्र प्रदान कर, परमानन्दित किया ।' (३:२५६-२६२) . गम्भीर विद्वान् माना जाता था । भरत नाट्यम शास्त्र, संगीत विद्या विद्वानों से वाद विवाद मे समर्थ उक्त उद्धरण से स्पष्ट हो जाता है । श्रीवर संगीतशास्त्र का काश्मीर मे तथा राजदरबार में उसकी ख्याति थी । वह काश्मीर मे पारंगत, सर्वश्रेष्ठ विद्वान था । भारत की किसी भी संगीत परम्परा के था । उसने काश्मीर का गौरव बढाया था । उसकी इस विलक्षण बुद्धि एवं गरिमा के कारण सुल्तानों ने उसकी मुक्त कण्ठ से प्रशंसा को है सुल्तान हसन स्वयं संगीत विशारद था, उसे अपना गुरु मान लिया था । सुल्तान ने स्वयं गीत काव्य रचना फारसी एवं हिन्दुस्तानी भाषा मे की थी। जिससे उसकी सब प्रशंसा करते थे !' (२:२१४) श्रीवर ने प्रतीत होता है, संगीत, गीत, एवं नृत्यादि का जो वातावरण उपस्थित किया था, उससे काश्मीर मण्डल प्रभावित हुआ था । देश एव विदेश के गीत एव संगीतज्ञों का काश्मीर केन्द्र एक आकर्षण हो गया था । । नृत्य : श्रीवर संगीत के अतिरिक्त नाट्यशास्त्र एवं नृत्यकला विशारद था । उसने नाट्यशास्त्र एवं नृत्य के हाव-भावों का वर्णन किया है। काश्मीर में नाटक प्राचीन काल से प्रचलित थे । मुसलिम शासन होने पर भी नृत्य एवं गान, जनता भूल नही सकी थी। श्रीवर वर्णन करता है - 'जहाँ पर द्रष्टा एवं गायक भी अन्तःकरण से उत्सुक, अलंकार सहित, प्रबन्ध के ज्ञाता तथा सिद्धान्त श्रुत में ग्राम गत चारु स्वर, राग से मनोहर रस पूर्ण गीत तथा युवतियाँ शोभित थीं । मान से सुखी मन, विद्याविद्, संशय रहित तथा रग मंच के प्रति रंगीन रुचि रखने वाले थे । ({:४:६–८) 'वहाँ पर वह लोग प्रति ताल, एक ताल आदि बहुताल विभूषित तारा, तारा का ज्ञान प्रख्यात थे, जहाँ पर नाना लोग कला कलाप के वेत्ता, ( हाव-भाव ) प्रकट करते थे । लास्य ताण्डव नृत्य को जानने वाले नैनोत्सव एवं कामदेव का अस्त्र मूलउत्सवा नाम्नी गायिका किसके लिये मनोरंजक नहीं हुई । उनवास भावों तथा उतने ही तालों को प्रदर्शित करती वे पात्री स्त्रियाँ मूर्तिमती सदृश शोभित हो रही थी ।' (१:४:८, ११ ) 'रंगमंच पर दीपित, वे दीपमालायें देखने की इच्छा से आगत, नागों के फण पर स्थित मणिगण राजरूप सुन्दर अभिनय द्वारा सुल्तान समय के कुछ नर्तकियों का वर्णन सदृश शोभित हो रही थी । ( १:४. १६) श्रेष्ठ नटों ने कृष्ण चन्द्रावली मे उसे देखते का कौतूहल उत्पन्न कर दिया । ( ३:२३२ ) श्रीवर अपने
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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