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________________ जैन राजतरंगिणी सर्ग का शीर्षक इतिपाठ में देने की शैली थी। प्रथम सर्ग में मल्लशिला यद्ध वर्णन. द्वितीय में दुर्भिक्ष वर्णन, तृतीय में आदमखान निर्वासन तथा हाजीखान संयोग, चतुर्थ में पुष्प लीला, पंचम में क्रमसर यात्रा, षष्ठ में चित्रोपचय शिल्प वर्णन तथा सातवें सर्ग में प्रथम तरंग का प्रतिपाद्य विषय जैन शाहि वर्णन लिखा है। इसी प्रकार द्वितीय तरंग के इतिपाठ में हैदर शाह राज्य वृत्तान्त, तृतीय में हस्सन शाह राज्य वृत्तान्त तथा चतुर्थ में फतिह शाह राज्य प्राप्ति वर्णन है । कल्हण ने इतिपाठों में तरंगों के प्रतिपाद्य विषयों को नहीं लिखा है। उसने केवल तरंग समाप्ति लिखकर छोड़ दिया है । जोनराज ने मेरे मत से स्वयं इतिपाठ नहीं लिखा है। उसमें भी केवल तरंग समाप्त लिखकर तरंग बन्द किया गया है। श्रीवर ने अपने पूर्व राजतरंगिणीकारों कल्हण तथा जोनराज की अपेक्षा शीर्षक किंवा प्रतिपाद्य विषय लिखकर, पुरातन शैली को और विकसित किया है। शुक ने प्रथम तरंग के इतिपाठ में 'महम्मदशाहराजभ्रंशो नाम प्रथमस्तरंग.' लिखकर, श्रीवर का अनुकरण किया है। शुक ने द्वितीय तरंग का इतिपाठ लिखा ही नहीं है । अतएव प्रतिपाद्य विषय किंवा शीर्षक नहीं दिया गया है। कल्हण तथा श्रीवर के इतिपाठों में अन्तर है। कल्हण ने पिता तथा अपने नाम का उल्लेख और परिचय इतिपाठों में दिया है । अष्टम तरङ्ग के इतिपाठ में कल्हण अपने तथा अपने पिता के परिचय के साथ ही साथ राजतरंगिणी को महाकाव्य की संज्ञा भी दिया है। किन्तु श्रीवर तथा शुक ने केवल अपने नाम ही इतिपाठ में लिखे हैं। उसमें अपने वंश, पिता का नाम, परिचय तथा रचना काव्य या महाकाव्य है, न लिखकर, केवल राजतरंगिणी रचनाकार लिखकर, तरंग समाप्त किया है। नाम: श्रीवर ने इतिपाठों में अपना नाम श्रीवर लिखा है। कुटुम्ब अथवा कुल का परिचय नहीं देता। पिता का भी कहीं नाम नहीं दिया है। इसी प्रकार जन्मस्थान के विषय पर भी कुछ प्रकाश नहीं डालता। उसने सुल्तान हस्सन के प्रसंग में अपना नाम केवल श्रीवर लिखा है। इससे पता चलता है कि वह केवल श्रीवर नाम से ही पुकारा जाता था। उसके नाम के साथ कोई उपाधि नहीं थी। (३:२६३) शुक ने श्रीवर का उल्लेख करते हुए उसका नाम केवल श्रीवर लिखा है । इससे प्रकट होता है कि राजानक ओनराज के समान वह राजपदवी विभूषित कवि नहीं था। (शुक. १:६) इतिपाठों के प्रारम्भ में उसने अपनी संज्ञा श्रीवर पण्डित दी है। पण्डित शब्द केवल जाति का सूचक है | कल्हण ने भी अपने नाम के साथ पण्डित लिखा है (१:१:७)। इससे प्रकट होता है कि श्रीवर ब्राह्मण था । हिन्दू था। शिवभक्त था, अर्द्धनारी की वन्दना से यह स्पष्ट होता है। उसके वर्णन से प्रतीत होता है। श्रीनगर का निवासी था। श्रीनगर का अत्यधिक वर्णन किया है। श्रीवर अपने गोत्र, उपजाति के विषय में कोई सूचना नहीं देता। इतिपाठ में वह केवल पण्डित श्रीवर ही लिखता है। इससे प्रकट होता है। कल्हण अथवा जोनराज के समान किसी ख्यात वंश का नहीं था। साधारण ब्राह्मण कुल का था। जन्म मृत्युः जन्म के विषय में कुछ पता नहीं चलता। उसका जन्म कब हुआ था। मृत्यु का अनुमान लगाया जा सकता है। चतुर्थ तरंग के प्रणयन के पश्चात् उसको मृत्यु हई थी। श्रीवर ने चतुर्थ तरंग में अन्तिम बार लौकिक संवत् ४५६२ सन् १४८६ दिया है। जोनराज तथा शुक अपनी रचना के अन्त में इतिपाठ नहीं
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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