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________________ भूमिका १९ शीर्षक से ही ग्रन्थ का परिचय तथा रचना का उद्देश्य मालूम होता है । परन्तु श्रीवर ने चार तुल्लानों का वर्णन किया है। ऐसी परिस्थिति में 'जैन' वंश का इतिहास हो जाता है, न कि केवल जैनुल आबदीन का । श्रीवर ने इतिपाठ पाचवें सुल्तान फतहशाह के राज्य प्राप्ति के समय लिखा था । फतहशाह के राज्य प्राप्ति का वर्णन विस्तार के साथ मिलता है। उसके अन्तिम इतिपाठ में पाठ भेद बहुत अधिक मिलते हैं । कुछ प्रतियों में केवल राजतरंगिणी और कुछ में जैन शब्द जुड़ा है इसलिए क्रम एवं परम्परा को देखते हुए, इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि 'जैन' शब्द कालान्तर में लिपिकों ने जोड़ दिया है । राजतरंगिणियों का ऐतिहासिक महत्त्व है । उनमें प्रचुर ऐतिहासिक सामग्री है । कल्हण राजतरंगिणी के सातवें के उत्तरार्ध एवं आठवें तरंग का प्रत्यक्षदर्शी है। सातवें तरंग के अन्तिम चरण तथा पूरे आठवें तरंग की घटनाओं का अर्थात् सन् १०९८ से ११४९ ई० के वर्षों के इतिहास का उसे प्रामाणिक ज्ञान था । उसके इतिहास की प्रामाणिकता, उसके प्रत्यक्ष दर्शी होने के कारण है । कल्हण की राजतरंगिणी काश्मीर का गौरव उपस्थित करती है। जोन की राजतरंगिणी काश्मीर की पतनावस्था का भयंकर दृश्य उपस्थित करती है। श्रीवर की राजतरंगिणी सुख से दुःख की ओर ले जाती है । शुक में ग्राहमीर वंश के पतनावस्था का चित्रण है । जोनराज सन् १९४९ से १३८९ ई० की घटनाओं का प्रत्यक्षवर्ती नहीं है। परन्तु सन् १३८९ ई० से सन् १४५९ ई० सत्तर वर्ष की घटनाओं का प्रत्यक्षदर्शी हैं । इसी प्रकार श्रीवर सन् १४५९ से १४८६ ई० २७ वर्षों, प्राज्य भट्ट सन् १४८६ से वर्षों और शुक सन् १५१२ से १५१८६० अर्थात् २५ वर्षों के घटनाओं एवं इतिहास के कल्हण जोनराज, श्रीवर, प्राज्य भट्ट, एवं शुक सबने मिलकर प्रत्यक्षदर्शी रूप में २०० वर्षों का इतिहास लिखा है । इस रचना की ऐतिहासिकता एवं सत्यता में अविश्वास करना अनुचित होगा । १५१३ ई० २७ प्रत्यक्षदर्शी है। राजतरंगिणी शब्द उसकी व्युत्पत्ति तथा उसके इतिहास आदि के विषय में लेखक कृत कल्हण राजतरंगिणी प्रथम खण्ड की भूमिका पृष्ठों ४५-४९ तथा १७-२१ जोन कृत राजतरंगिणी में प्रकाश डाला गया है । उसे पुनः लिखना पुनरुक्ति दोष है । 1 ग्रन्थ योजना : श्रीवर ने राजतरंगिणी चार तरंगों में विभाजित किया है। प्रथम तरंग सात सगों में विभाजित है। परन्तु तरंग २, ३, एवं ४ में सर्ग नहीं है। कल्हण की राजतरंगिणी तरंगों में विभाजित है। जोनराज ने तरंगों एवं सर्गों में राजतरंगिणी विभाजित नहीं किया है । प्राज्य भट्ट के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता । शुक राजतरंगिणी भी तरंगों में विभाजित है। श्रीवर ने कल्हण के समान तरंगों में ग्रन्थ विभाजित करने के साथ ही साथ प्रथम तरंग को सात सर्गों में विभाजित किया है । विषय प्रतिपादन की दृष्टि से श्रीवर का वर्गीकरण उचित है। इतिपाठ : श्रीवर ने राजतरंगिणी लिखने की दो योजनाएँ बनाई थीं । प्रथम योजना के अनुसार, उसने प्रथम तरंग एवं दूसरी योजना के अनुसार द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ तरंग की रचना किया था। श्रीवर के प्रत्येक सर्ग एवं तरंग के इतिपाठ में वर्णित विषय का निर्देश किया है। आधुनिक रचना शैली के अनुसार सर्ग किया तरंग अथवा अध्याय का विषय शीर्षक में लिख दिया जाता है। पुराकालीन संस्कृत साहित्य में अध्याय किंवा
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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