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________________ १३२ जैनराजतरंगिणी [१:४:४३-४६ स्फुरद्विचकिलोल्लासहासं स भवनान्तरम् । आसदत् तारकापूर्ण पूर्णचन्द्र इवाम्बरम् ॥ ४३ ॥ ४३. तारकापूर्ण अम्बर में पूर्णचन्द्र समान वह राजा स्फुरित होते, विचकिल' ( पुष्प ) के उल्लास हास युक्त भवन में पहुंचा। ततो विमलकुण्डान्ते पानक्रीडां महीपतिः । कर्तुं प्रचक्रमे तत्र पुत्रमित्रविभूषितः ।। ४४ ॥ ४४. तद उपरान्त वहाँ पर विमल कुण्ड के पास पुत्र मित्र से भूषित महीपति ने पानक्रीडा आरम्भ की। पितृप्रेमामृतोत्सित्तो हाज्यखानोऽथ भक्तिमान् । वसन्तवर्णनोन्मिश्रां चाटूक्तिमवदद् विभोः ॥ ४५ ॥ ४५. पितृप्रेमामृत से सिक्त भक्तिमान हाजीखान वसन्त वर्णन मिश्रित राजा की चाटुक्ति' (प्रशंसा ) की। संगीतनादनिपुणान् कलकण्ठभृङ्गान् कृत्वानिलं व्रततिलास्यविधानदक्षम् । गीतप्रियं नरपते किमु सेवितुं त्वां प्राप्तो वसन्तऋतुचारणचक्रवर्ती ॥ ४६ ॥ ४६. 'हे नरपते ! कलकण्ठ भृङ्गों को संगीत नाद में निपुण तथा वायु को लता नर्तन विधान में दक्ष बनाकर, चारण चक्रवर्ती वसन्त ऋतु गीतप्रिय आपकी सेवा हेतु उपस्थित हुआ है, क्या ? ४५. (१) चाटुक्ति : खुशामद या मिथ्या प्रशंसापूर्ण वचनों का प्रयोगः चापलसी। चाटुक्तियों से राजा अच्छा शासक नहीं बनता। पाद-टिप्पणी: कलकत्ता संस्करण की ३७६वी पंक्ति है। ४३. (१) विचकिल : एक प्रकार की चमेली है । मदन वृक्ष का नाम भी विचकिल है। पाद-टिप्पणी: ४४. कलकत्ता संस्करण की ३७७वीं पंक्ति है। पाद-टिप्पणी: कलकत्ता संस्करण की ३७८वीं पंक्ति है। पाद-टिप्पणी: ४६. पाठ-बम्बई । कलकत्ता संस्करण की ३७९ वीं पंक्ति है।
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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