SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 242
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन राजतरंगिणी निर्गता सलिलान्तरात् । चक्रे प्रेक्षकलोकानां त्रासाश्चर्यभयोदयम् ।। २१ ।। २१. सलिलान्तर से निर्गत, सर्पाकार अग्निज्वाला प्रेक्षक लोगों में त्रास, आश्चर्य एवं भय का उदय कर रही थी । नालकादुत्थिता व्योम्नि ज्वालागोलकपङ्क्तयः । जीव शुक्रोपमां राजद्राजतरो चिका व्यधुः ।। २२ ।। २२. नालक' से उठी रजत की कान्ति से पूर्ण ज्वाला गोलक पक्तियाँ आकाश में जीव (बृहस्पति) तथा शुक्र की उपमा उत्पन्न कर रही थी । १२४ सर्पाकारान ज्वाला रज्जुबद्धागमद् दूरं ज्वलन्त्योषधनालिका । आहूतये तथा नीतास्तादृश्यो बहवो गताः ॥ २३ ॥ २३. रज्जुबद्ध, वह जलती औषध- तालिका' दूर तक गयी - उसे उसी प्रकार मानो बुलाने के लिये ही बहुत-सी (नालिकाएँ) गयी । गतागतानि कुर्वन्त्यो दीप्ता उल्का इवोल्वणाः । प्रेक्षकाणां प्रिया [ १ : ४ : २१–२५ दृष्टीरहरन्नद्भुतावहाः || २४ ॥ २४. उल्का सदृश तेज तथा गतागत करती हुयी, अद्भुता वह दीप्त, उन नालिकाओं ने प्रेक्षकों की प्रिय दृष्टि का हरण किया । अत्र पात्रीकरस्थापि ज्वलन्त्योषधनालिका । लोको मुक्त सद्वर्णस्वर्ण पुष्पश्रियं व्यधात् ।। २५ ।। २५. यहाँ पर जलती औषध नालिका पात्री (नटी) के कर में स्थित होकर, स्वर्गलोक से उन्मुक्त सुन्दर वर्ण स्वर्ण पुष्प की श्री (शोभा) सम्पन्न करती थी । है, आतिशबाजी का मसाला रंग-विरंगा भरा रहता है । उसे भूमि पर रखकर आग लगा देते है । उसमें स्फुटित चिनगारियाँ, फुहारा तथा पुष्प सदृश लगती है । उसे प्रचलित भाषा में अनार छोड़ना कहते है । (२) कुसुम : इसे फुलझरी या फुलझडी कहते है । आतिशबाजी का यह एक प्रकार हैं। पाद-टिप्पणी : २२. ( १ ) नालक : नाल से निकलती अग्निकण रजत, स्वर्ण, बैगनी तथा लाल विभिन्न रंगों के होते हैं । आतिशबाज उन्हें रुचि अनुसार बनाते हैं । आतिशबाजी में बाण, चर्खी, चद्दर, अनार आदि में वास को खोखला कर उसमें मसाला भर दिया जाता है। आग लगाने पर फुलझडी, चर्खी, बाण, अनार एवं चादर से आतिशबाजी छूटने लगती है । जहाँ बाँस नहीं मिलता, वहाँ लकड़ी खोखला कर या लोहा की नली का प्रयोग किया जाता है । पाद-टिप्पणी : २३. ( १ ) नलिका आतिशबाजी नलिका सहित आकाश में उड़कर वही आतिशबाजी छोड़ती है । सम्भवतः आजकल के प्रचलित बाण है, जो आकाश मे जाकर ऊपर छूटता है । यह नलिका बास की बनाई जाती है । वह ऊपर जाकर छूटती, कहीं दूर पर गिरती है ।
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy