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________________ १ : ३ : ९६] श्रीवरकृता १०३ हत्वा मृत्युरिवात्युग्रांतदिने नृशतत्रयीम् । नौसेतुबन्धमुच्छिद्य नदीपारं समासदत् ।। ९६ ॥ ९६ उस दिन भृत्य सदृश वह अत्युग्र तीन सौ मनुष्यों को मारकर तथा नाव के सेतु' का उच्छेद कर, नदी पार पहुंच गया। बहुत उल्लेख किया है। (रा० : १. ९३, ३०७, है कि संस्कृत भाषा-भाषी क्षेत्रों के सीमावर्ती अंचल मे ३१२; ५ : १५२;७ : ११९, १६७, १७१, १७४, दरद जाति निवास करती थी। काश्मीर की भाषा १७६,३७५, ९११,११७१,११७३, ११७४, ११८१, संस्कृत थी। सीमांत पश्चिमोत्तर प्रदेश में संस्कृत ११८५, ११९५, ११९७; ८ २०१, २०९, २११, भाषा का प्रसार था । अतएव संस्कृत का दरद भाषा ११३०, २४५४, २५१९, २५३८, २७०९, २७६४, पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। प्राचीन विद्वान दरद २७६५, २७७१, २७७५, २८४२-९७, ३४०१, भाषा को संस्कृत भाषा की शाखा मानते थे। उसे ३०४७) । प्राचीन भारतीय साहित्य एवं ऐतिहासिक पैशाची प्राकृत कहते थे। दरद भाषा के ही अंतर्गत ग्रन्थों मे दरदों का एक देश एवं जाति दोनों रूपों मे खोवार, किंवा चित्राली आदि, काफिरिस्तान की बहुत उल्लेख मिलता है। दरद का अर्थ पर्वत होता बोलियाँ आती है। काफिरिस्तान की भाषा में बश्गली, है। दरद जाति पर्वतीय है। उनका समस्त प्रदेश बइअला, बसिबेरी, अशकुन्द, कलाशाप, शादी पर्वतों के मध्य है। कृष्णगंगा के ऊर्ध्वभागीय बोलियाँ आ जाती है। शीना भाषा भी दरद के उपत्यका एवं उत्तरीय काश्मीर में दरदों का देश अन्तर्गत आती है। शीना की ही बहन गिलगिती था। उसे आज भी दर्दिस्तान कहते है। दरदापुर भाषा है। इसी भाषा के अन्तर्गत भाषाविद् कोहिकिंवा दरतपुरी वहाँ का नगर है। दरदक्षेत्र को स्तानी, मैया, तोरवारी, गार्वी एवं अश्कुन्द रखते है । दरस भी कहते हैं। दरदिस्तान पामीर के दक्षिण दरद जाति मूलतः आर्य है। इस समय दर्दिस्तान है। दारदिक एवं पैशाची भाषा को आर्य भाषा की में कोई हिन्दू नहीं है। सभी मुसलमान है। वे एक साखा माना गया है। एक मत है कि दरदी काश्मीर के उत्तर पर्वतीय क्षेत्रों में रहते है । तिब्बती भाषा इरानी तथा फारसी के मध्य की भाषा है। बालती लोग उनके पड़ोसी हैं। पूर्व दिशा में लद्दाखी भारत में दरद को एक जाति माना गया है। और पश्चिम में अफगानी या पठान आबाद हैं। पूर्वकाल मे वे क्षत्रिय थे। कालान्तर में ब्राह्मणों के कोप के कारण शूद्र हो गये। इस समय सभी मुसल- पाद-टिप्पणी : मान है। द्रष्टव्य : रा०: भाग १: परिशिष्ट 'ध'। बम्बई का ९५वा श्लोक तथा कलकत्ता की बौद्ध ग्रंथ ललितविस्तर से ज्ञात होता है कि ३०८वी पंक्ति है। दरदों की लिपि ६४ लिपियों में से एक थी। दरद ९६. (१) सेतु : यहाँ सुय्यपुर में वितस्ता भाषा के क्षेत्र पामीर, प्लेटो तथा पश्चिमोत्तर सीमा- पर बना पल अभिप्रेत है। पीर हसन लिखता हैप्रान्त के मध्य है। यह क्षेत्र पंजाब के पश्चिम-उत्तर है। आदम खां के बहुत से सिपाही काम आये । और वह दरद भाषा पख्त एवं पश्तो भाषा के समान फारसी शिकस्त खा गया । दौरान हजी मत ( पराजय ) में एवं भारतीय भाषा के मध्य स्थिति मानी गई है। ज्योंही कि वह सोपोर के पुल से गुजर रहा था कि पश्तो, फारसी की ओर झुकी है। परन्तु दरद भार- अचानक पुल टूट गया और उसके तीन सौ बहादुर तीय भाषा की ओर झुकी है । उसका मुख्य कारण लुकमा अजल हो गये ( पृष्ठ १८४)।
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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