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________________ श्रीवरकृता तलद्वारोत्सुकस्यास्य राज्ञः प्रत्यक्षतां गतम् । । मायासुरपुरं किं वा यद् दृष्ट्वेत्यवदन् बुधाः ।। ३८ ।। ३८ तल द्वार पर उत्सुक, इस राजा को दृष्टिगोचर हुआ, जिसे देखकर, विद्वानों ने अस्पष्ट 'मायासुरपुर, ' है क्या ?' इस प्रकार कहा । १ १३३८-४० ] यद्वारिकान्तं संक्रान्तं परितः सरितस्तटात् । द्वारिकां हसतीवास्य द्वार कान्त्या सुधासितम् ।। ३९ ।। ३९. नदी के तट पर सब ओर जल में प्रतिबिम्बित, चूने से श्वेत, जिसका द्वार भाग मानो द्वारिका का परिहास करता था। जयसिंहाय तत्र राजपुरीयाय राज्यतिलकं प्रददौ ४०. वहाँ पर राजा के जन्म दिवस के प्रदान किया । पाद-टिप्पणी बम्बई का ३७वां श्लोक तथा कलकत्ता की २५१वीं पंक्ति है । प्रथम पद के प्रथम चरण का पाठ सन्दिग्ध है। ८५ भूपतिः । निजजन्मदिनोत्सवे ॥ ४० ॥ उत्सव पर राजपुरीय' जयसिंह को राजतिलक ३८. ( १ ) मायासुर : यह मयासुर मेरे मत से है । प्राचीन मान्यता के अनुसार मयासुर दानव या नमुचि का भ्राता एवं सर्वश्रेष्ठ शिल्पी या । त्रेतायुग में दक्षिण समुद्र के निकट सह्य, मलय एवं बदुर नामक पर्वतों के समीप एक विशाल गुफा में बने भवन में निवास करता था । दैत्यराज वृषपर्वन द्वारा किये गये होम के समय इसने एक अति चमत्कृतपूर्ण सभा का निर्माण किया था। इसमें दस्यों के संरक्षण के लिये तीन नगरों का निर्माण किया था। वे आकाश जैसे मेघो के समान घूमते दिखायी पड़ते थे। उनमें एक स्वर्ण, दूसरा रजत एव तीसरा लोह का बना था । भगवान् कृष्ण के आदेश पर वृषपर्वत के कोषागार से सामग्री लाकर, मय ने सभा नामक दिव्य सभा का निर्माण किया था । युधिष्ठिर ने अपना राजसूय यज्ञ यही किया था। यह भुवन रचना दुर्योधन के ईर्षा की कारण हुई थी। मत्स्यपुराण 'में उल्लेख मिलता है कि इसने वात्सुशास्त्र की रचना किया था। अनेक शिल्प एवं ज्योतिष शास्त्र ग्रन्थों का रचनाकार मय माना गया है। मयासुर दानवो का विश्वकर्मा है मय ने एक सहस्र वर्ष घोर " तपस्या कर ब्रह्मा से वरदान स्वरूप शुक्राचार्य का समस्त शिल्प वैभव प्राप्त कर लिया था। रावण की पत्नी मन्दोदरी इसकी कन्या थी ( किष्कि० : ५१ : १०-१४ उत्तर० १२ १६-१९ महा० आदि० ६१, ४८-४९, २२७ ३९-४५ सभा० १२-६, २१ वन० २८२ : ४०-४३; कर्ण० ३३ : १७; भा० ६ : १८ : ३, ६ : ६ : ३३; वायु० : ८४ : २०; ब्रह्माण्ड० : ३ : ६ : २८-३० ) । पाद-टिप्पणी : बम्बई का ३८वां श्लोक तथा कलकत्ता की २५२वीं पंक्ति है। ३९. ( १ ) द्वारिका सप्तपुरियों में एक पुरी है । पाद-टिप्पणी : उक्त श्लोक बम्बई संस्करण का ३९ वां श्लोक तथा कलकत्ता की २५३वी पंक्ति है । ४०. ( १ ) राजपुरी राजौरी ।
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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