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________________ ५२ जैन राजतरंगिणी रणभूभाजने स्फुटम् । ते वीरमस्तकारिछन्ना क्षुत्तप्तस्य कृतान्तस्य कवला इम रेजिरे ॥ १५७ ॥ १५७. मस्तक छिन्न, वे वीर रण भू-पात्र में क्षुधा से तप्त, कृतान्त के ग्रास सदृश, शोभित हो रहे थे । रणतूर्यस्वनैस्तैस्तैजेनकोलाहलैस्तथा वीराणां १५८. रणवाद्य की ध्वनियों तथा तत् तत् जन कोलाहलों से एवं वीरों के सिंहनादो से शब्दों का अद्वैत हो गया था । तच्छुद्धये पाद-टिप्पणी : सिंहनादैश्च शब्दाद्वैतमजायत ।। १५८ ॥ [ १ : १ : १५७ - १६१ ऋणमिवेक्ष्य नृपप्रसाद प्राप्ते क्षणे जहति ये निजजीविताशाम् । तत्तद्विहस्तपरिरक्षधर्मलुब्धा १५९. राज कृपा को ऋण सदृश मानकर, उसकी शुद्धी के लिये समय आने पर, जो लोग अपनी जीवन की आशा त्याग देते हैं, और व्याकुलों की परिरक्षण द्वारा धर्म के लोभी होते हैं, वे लोग कतिपय राजसेवकों की अपेक्षा धन्य हैं । धन्यास्त एव कतिचिन्नृपसेवकेभ्यः ।। १५९ ।। १५७. पाठ-बम्बई राजाग्रादागतास्तीक्ष्णाः शरास्तत्पक्षपातिनः । स्वयं पाहीति भीत्येव स्खलन्तः समचोदयन् ॥ १६० ॥ १६०. राजपक्ष से आगत, उसके पक्ष में गिरने वाले की बाणवर्षा मानों भय से ही स्खलित होते हुए, 'स्वय' की रक्षा करो' इस प्रकार प्रेरणा दिये । ध्वजचेलाश्चला राजसुतस्याग्रे तु वायुना । सकम्पा रणभीत्येव पश्चाद्भागमशिश्रियन् ॥ १६१ ॥ १६१. राजपुत्र के सम्मुख, वायु से चंचल ध्वजाएँ, रणभीति से ही मानो, कम्पित होकर, पश्चात भाग का आश्रय ग्रहण किये । पाद-टिप्पणी : १५९. कलकत्ता में 'लब्धा' तथा ' बम्बई में 'लुब्धा' शब्द है । बम्बई का पाठ ठीक है । प्रतीत होता है कि कलकत्ता में मात्रा 'ऊ' छूट गयी है । पाद-टिप्पणी : ६१. कलकत्ता 'अशिश्रयन्' के स्थान पर बम्बई 'अशिस्त्रियन्' पाठ लिया गया है । यह व्याकरणसम्मत है ।
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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