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________________ १ : १ : १४४-१४७] श्रीवरकृता शुक्रयोगजनामसंपरीक्षणविचक्षणः स्वपक्षरक्षणं मापः पृष्ठीकृतरविय॑धात् ॥ १४४ ॥ १४४. शुक्र योगज' नाम नक्षत्र परीक्षण में निपुण राजा ने सूर्य को पृष्ठभाग में करके, अपने पक्ष की रक्षा की। राज्ञः पृष्ठगतः सूर्यः खड्गान्तःप्रतिबिम्बितः । जयस्ते भवितेत्येव वक्तुं व्योम्नोऽवतीर्णवान् ॥ १४५ ।। १४५. राजा के पृष्टगत खंग में प्रतिबिम्बित होकर, तुम्हारा जय होगा, यह व्यक्त कहने के लिये ही, आकाश से अवतरित हुये - (सायंकाल हुयी)। कियन्तोऽमीति यावत् सोऽचिन्तयत् तावदग्रतः । अर्कदीप्तिज्वलच्छस्त्रद्य तिद्योतितभूतलम् ॥१४६ ॥ १४६. तब तक, वह ये लोग कितने हैं, यह जब तक, वह सोच रहा था, तब तक, समक्ष सूर्य की दीप्ति से, चमक ने शस्त्र की कान्ति से, भूतल प्रकाशित करते निर्यत्सन्नाहिसायोघपतद्भटतुरङ्गमम् । गणशो गणशो धावत् तत्सैन्यं समवैक्षत ।। १४७ ॥ १४७. उसने यूथ के यूथ दौड़ते, उस सेना को देखा, जिसमें कि वर्मयुक्त योद्धा, समूह एक भट और तुरंग निकल रहे थे। १४३ (१) मुरारी : श्रीवर ने मुरारी नाम का प्रकार मुर राक्षस का भगवान ने क्रोध से संहार प्रयोग श्रीकृष्ण के लिये किया है । शंखासुर के पुत्र मुर किया था, उसी प्रकार जैनुल आबदीन भी क्रुद्ध होकर को मारने के कारण भगवान का नाम मुरारी पड़ा है युद्ध के लिये सन्नद्ध हो गया ( सभापर्व : ३८)। (भाग० : ४ : २६ : २४; १०:१० - १४ : ५८७ सुलतान जैनुल आबदीन सन्धि के लिये प्रेषित ब्रह्मा० : ३ : ३६ : ३४; मत्स्य० : ५४ : १९)। भग- अपने दूत की दुर्दशा देखकर, क्रोधित हो गया और वान ने क्रुद्ध होकर, अद्भुतशक्ति का परिचय दिया था। युद्ध का आदेश दिया। मुर एक पंचमुखी दैत्य था। प्रागज्योतिषपुर के राजा पाdिom. का सेनापति था। इसने नरकासुर के प्रागज्योतिष १४४. (१) शक्रयोग . शुक्रयोग के सम्बन्ध पुर की सीमा पर ६ हजार पाश लगाया था। उनके किनारों पर छुरे लगे थे। उन पाशों को उसके नाम में ग्रह्याराध्याय, वाराही संहिता और वल्लालसेन पर ही 'मोख' नामकरण किया गया था। भगवान विरचित अद्भुत सागर में उल्लेख मिलता है। यह ने उन पाशों को सुदर्शन चक्र द्वारा काट कर, मुर। व्यापक अर्थ का सूचक है। इसके अन्तर्गत शुक्र का तथा उसके पुत्रों का वध किया था। मुर को मारने उदयास्त, शुक्र की नक्षत्रगति, राशि प्रवेश और के कारण भगवान का नाम मुरारी पड़ गया। जैनुल योग आदि अनेक पर्याय है। आबदीन को श्रीवर तथा जोनराज ने हरि का अवतार पाद-टिप्पणी : माना है । अतएव यहाँ पर भी संकेत करते हैं कि जिस १४७. पाठ : बम्बई । जै. रा. ७
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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