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________________ जैनराजतरंगिणी [१:१:१०८-१११ ते चेयुद्धार्थमेष्यन्ति न जेष्यन्त्यस्मदन्तिकात् । वयं चेदन्तरं यामो न जेष्यामः कदाचन ।। १०८ ॥ १०८. 'वे युद्ध के लिये आयेगे, तो हमलोगों से नही जीत सकेंगे और हम लोग अन्दर जायेंगे, तो कदापि नहीं जीतेंगे।' इति दात् स श्रुत्वापि खानः शूरपुरावना। अगाद् राजपुरीं त्यक्त्वा कश्मीरान् पिशुनेरितः ॥१०९॥ १०९. इस प्रकार सुनकर, दर्प से वह खाँन पिसुन' प्रेरित होकर, राजपुरी त्यागकर, शूरपुर मार्ग से काश्मीर गया। अस्मिन्नवसरे श्रुत्वा स्वपुत्रं सहसागतम् । गृहीत्वा स्वबलं तूर्णं नगरान्निरगान्नृपः ।। ११० ॥ ११०. इस समय सहसा, अपने पुत्र को आया हुआ सुनकर, शोघ्र ही अपनी सेना लेकर, राजा नगर से निकल पड़ा। गच्छन् सकटको राजा मरणे कृतनिश्चयः । सदुःखो निःश्वसन् श्लोकमिममेकमपाठयत् ॥ १११ ॥ १११. मरने का निश्चय करके, सेना सहित जाते हुए, राजा दु:ख के साथ निःश्वास लेते हुए, इस एक श्लोक को पढ़ा-- पाद-टिप्पणी : से दक्षिण की ओर यह मार्ग है । शूरपुर से आध मील १०९. ( १ ) पिशुन : तवकाते अकवरी में . के ऊपर पीर पन्तसाल पर्वत है। वहाँ से रामव्यार नदी के दक्षिण तट से पीर पत्तरूल की ओर जाता उल्लेख है-अन्त मे हाजी खाँ ने कुछ लोगों के बहकाने से काश्मीर में प्रवेश किया ( ४४२ )। है। प्राचीन काल की मुद्रायें यहाँ पर, प्रायः मिल जाती है। नदी के दक्षिण तट कुछ दूर पर (२) शूरपुर . यह वर्तमान हूरपुर है। इसे प्राचीन मन्दिर का अलंकृत पत्थर पडा मिलता है। हीरपुर तथा हरीपुर भी कहते है। इसकी स्थापना वह पूर्व काल में बड़ा गॉव था। सूपियान की ओर राजा अवन्तिवर्मा के मन्त्री शूर ने किया था । राजौरी तीन मील तक पाद पावन गाँव तक फैला था। नदी से काश्मीर आते समय प्रवेश मार्ग पर पड़ता है। वहाँ के दोनों तटों पर आबादी का चिह्न वर्तमान गाँव के टंग भी बनाया गया था। यहाँ पर द्रंग का आकार अधोभाग मे मिलता है। देखा जा सकता है। शूरपुर गाँव से थोडे ही दूर पर पाद-टिप्पणी : है। इसे इलाही दरवाजा कहते है। यह पुराने राजकीय पथ पर व्यापार का स्थान रहा है। काश्मीर ११०. ( १ ) नगर = श्रीनगर ।
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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